श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 113

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग कान्हरौ

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ब्रज बनिता देखति नँद नन्दन।
नव घन नील बरन ता ऊपर खौर कियौ तन चंदन ॥1॥
करन बरन तन पीत पिछौरी उर भ्राजति बनमाल।
निरमल गगन सेत बादर पै मनौ दामिनी जाल ॥2॥
मुक्ता माल बिपुल बग पंगति उडत एक भई जाति।
सूर स्याम छबि निरखत जुबती हरष परस्पर होति ॥3॥

व्रजकी स्त्रियाँ नन्दनन्दनको देख रही है- वे नवीन मेघके समान नीलवर्ण है और उसपर वे शरीरमे चन्दनका लेप किये है । स्वर्णके रंगका पीला पटुका शरीरपर है और वक्षःस्थलपर वनमाला शोभा दे रही है मानो निर्मल आकाशमे श्वेत बादलोंके ऊपर वद्युतका जाल फैला हो । मोतियोंकी माला विशाल बगुलोकी पंक्तिके समान है जो उडते हुए एक होकर शोभा दे रही है । सूरदासजी कहते है- श्यामकी छटा देख युवतियाँ परस्पर ( उसका वर्णन करके ) आनन्दित हो रही है ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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