"श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 114" के अवतरणों में अंतर

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'''रतन जटित कुंडल सखि स्त्रवनन'''  
 
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'''तिन की किरन सूर तन लाजत ॥1॥'''
 
'''तिन की किरन सूर तन लाजत ॥1॥'''
'''सातौ रासि मेलि द्वादस मैं'''  
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'''सातौ<ref>सातवीं राशि तुला-जोड़ी ।</ref> रासि मेलि द्वादस<ref>बारहवीं राशि मीन-मछली।</ref> मैं'''  
 
'''कटि मेखला अलंकृत साजत।'''
 
'''कटि मेखला अलंकृत साजत।'''
'''पृथ्वी मथी पिता सो लै कर'''  
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'''पृथ्वी मथी पिता<ref>पृथ्वीमथी-पिता-पृथ्वी का दोहन करने वाले आदिराज पृथुके पिता वेन या वेणु-बाँस ।</ref> सो लै कर'''  
 
'''मुख समीप मुरली धुनि बाजत॥2॥'''
 
'''मुख समीप मुरली धुनि बाजत॥2॥'''
'''जलधि तात तिहि नाम कंठ के'''  
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'''जलधि तात तिहि नाम कंठ<ref>जलधितात तिहि नाम कंठ- (जल इसलिए नार कहा जाता है कि वह नरस्वरूप श्रीहरि से उत्पन्न हुआ; वे नारायण जिसके कंठ के समान-केकी- कण्ठाभनील कहे जाते हैं, वह)- मयुर ।</ref> के'''  
 
'''तिन के पंख मुकुट सिर भ्राजत।'''
 
'''तिन के पंख मुकुट सिर भ्राजत।'''
 
'''सूरदास कहै सुनौ गूढ हरि'''
 
'''सूरदास कहै सुनौ गूढ हरि'''

13:25, 31 मार्च 2018 के समय का अवतरण

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग सूही

101
प्रात समै आवत हरि राजत।
रतन जटित कुंडल सखि स्त्रवनन
तिन की किरन सूर तन लाजत ॥1॥
सातौ[1] रासि मेलि द्वादस[2] मैं
कटि मेखला अलंकृत साजत।
पृथ्वी मथी पिता[3] सो लै कर
मुख समीप मुरली धुनि बाजत॥2॥
जलधि तात तिहि नाम कंठ[4] के
तिन के पंख मुकुट सिर भ्राजत।
सूरदास कहै सुनौ गूढ हरि
भगतन भजत अभगतन भाजत ॥3॥

प्रातःकाल आते हुए श्याम शोभायमान हो रहे है । सखी ! उनके कानोंमें रत्नजटित कुण्डल है जिनकी किरणोंसे सूर्य-बिम्ब भी लज्जित होता है । यह जुडी हुई मछलियोंकी आकृतिसे अलंकृत किंकिणी कमरमें शोभा दे रही है और बाँसकी वंशीको हाथ में लेकर मुखसे लगाकर ( सुरीली ) ध्वनिसे बजा रहे है । मयूरपिच्छका मुकुट मस्तकपर शोभा दे रहा है । सूरदासजी कहते है कि हरिकी यह रहस्यमय गति सुनो-भक्तोंके वे भजन करते ( उनसे प्रेम करते ) है और अभक्तोंसे दूर हो जाते है ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सातवीं राशि तुला-जोड़ी ।
  2. बारहवीं राशि मीन-मछली।
  3. पृथ्वीमथी-पिता-पृथ्वी का दोहन करने वाले आदिराज पृथुके पिता वेन या वेणु-बाँस ।
  4. जलधितात तिहि नाम कंठ- (जल इसलिए नार कहा जाता है कि वह नरस्वरूप श्रीहरि से उत्पन्न हुआ; वे नारायण जिसके कंठ के समान-केकी- कण्ठाभनील कहे जाते हैं, वह)- मयुर ।

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