श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
षष्ठम अध्यायभवति कश्चिद् रागी स्त्रीचित्तो न तु स्त्रियम् एव परत्वेन गृह्णति, किं तर्हि राजानं महादेवं वा अयं तु मच्चित्तो मत्परः च।।14।। कोई स्त्री प्रेमी स्त्री में चित्त वाला हो सकता है; परंतु वह स्त्री को सबसे श्रेष्ठ नहीं समझता। तो किसको समझता है? परंतु यह साधक तो चित्त भी मुझमें ही रखता है और मुझे ही सबसे अधिक श्रेष्ठ भी समझता है।।14।। अथ इदानीं योगफलम् उच्चते- अब योग का फल कहा जाता है- युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानस: । युञ्जन् समाधानं कुर्वन् एवं यथोक्तेन विधानेन सदा आत्मानं योगी नियतमानसो नियतं संयतं मानसं मनो यस्य सः अयं नियतमानसः, शान्तिम् उपरतिं निर्वाणपरमां निर्वाणं मोक्षः तत्परमा निष्ठा यस्याः शान्तेः सा निर्वाणपरमा तां निर्वाणपरमां मत्संस्थां मदधीनाम् अधिगच्छति प्राप्नोति।।15।। नियत मनवाला योगी अर्थात् जिसका मन जीता हुआ है ऐसा योगी उपर्युक्त प्रकार से सदा आत्मा का समाधान करता हुआ अर्थात् मन को परमात्मा में स्थिर करता-करता मुझ में स्थित निर्वाणदायिनी शान्ति की परमनिष्ठा-अंतिम स्थिति मोक्ष है एवं जो मुझ में स्थित है- मेरे अधीन है ऐसी शान्ति को प्राप्त होता है।।15।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज