श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 274

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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षष्ठम अध्याय

बाह्यम् आसनम् उक्तम् अधुना शरीरधारणं कथम् इति उच्यते-

बाह्य आसन का वर्णन किया, अब शरीर को कैसे रखना चाहिए? सो कहते हैं-

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर: ।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥13॥

समं कायशिरोग्रीवं कायः च शिरः च ग्रीवा च कायशिरोग्रीवं तत् समं धारयन् अचलं च समं धारयतः चलनं सम्भवति अतो विशिनष्टि अचलम् इति। स्थिरः स्थिरो भूत्वा इत्यर्थः।

स्वं नासिकाग्रं सम्प्रेक्ष्य सम्यक् प्रेक्षणं दर्शनं कृत्वा इव।

इति इवशब्दो लुप्तो द्रष्टव्यः। न हि स्वनासिकाग्रसम्प्रेक्षणम् इह विधित्सितम्। किं तर्हि चक्षुषोः दृष्टिसन्निपातः।

काया, सिर और गरदन को सम और अचल भाव से धारण करके स्थिर होकर बैठे। समानभाव से धारण करके स्थिर होकर बैठे। समान भाव से धारण किए हुए कायादिका भी चलन होना संभव है, इसलिए ‘अचलम्’ यह विशेषण दिया गया है।

तथा अपनी नासिका के अग्रभाग को देखता हुआ यानी मानो वह उधर ही अच्छी तरह देख रहा है। इस प्रकार दृष्टि करके।

यहाँ ‘संप्रेक्ष्य’ के साथ ‘इव’ शब्द लुप्त समझना चाहिए; क्योंकि यहाँ अपनी नासिका के अग्रभाग को देखने का विधान करना अभिमत नहीं है।

तो क्या है? बस, नेत्रों की दृष्टि को (विषयों की ओर से रोककर) वहाँ स्थापन करना ही इष्ट है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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