श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 271

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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षष्ठम अध्याय

किं च -तथा-

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥9॥

सुहृदित्यादिश्लोकार्धम् एकं पदम्।

'सुहृद् इति प्रत्युपकारम् अनपेक्ष्य उपकर्ता। मित्रं स्नेहवान्। अरिः शत्रुः। उदासीनो न कस्यचित् पक्षं भजते। मध्यस्थो यो विरुद्धयोः उभयोः हितैषी। द्वेष्य आत्मनः अप्रियः। बन्धु संबंधीइति एतेषु साधुषु शास्त्रानुवर्तिषु अपि च पापेषु प्रतिषिद्धकारिषु सर्वेषु एतेषु समबुद्धिः कः किंकर्मा इति अव्यापृतबुद्धिः इत्यर्थः। विशिष्यते विमुच्यते ति वा पाठान्तरम्। योगारूढानां सर्वेषाम् अयम् उत्तम इत्यर्थः।।9।।

‘सुहृत्’ शब्द से लेकर आधार श्लोक एक पद है। ‘सुहृत्’- प्रत्युपकार न चाहकर उपकार करने वाला, ‘मित्र’- प्रेमी, ‘अरि’ – शत्रु, ‘उदासीन’- पक्षपातरहित, ‘मध्यस्थ’- जो परस्पर विरोध करने वाले दोनों का हितैषी हो, ‘द्वेष्य’- अपना अप्रिय और ‘बन्धु’- अपना कुटुम्बी, इन सबमें तथा शास्त्रानुसार चलने वाले श्रेष्ठ पुरुषों में और निषिद्ध कर्म करने वाले पापियों में भी जो समबुद्धि वाला है, इन सबमें[R1] [R2] [R3] कौन कैसा क्या कर रहा है ऐसे विचार में जिसकी बुद्धि नहीं लगती है वह श्रेष्ठ है। अर्थात् ऐसा योगी सब योगारूढ़ पुरुषों में उत्तम है। यहाँ ‘विशिष्यते’ के स्थान में ‘विमुच्यते’ (मुक्त हो जाता है) ऐसा पाठान्तर भी है।।9।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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