श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
षष्ठम अध्यायआत्मा एव हि यस्माद् आत्मनो बन्धुः। न हि अन्यः कश्चिद् बन्धुः यः संसारमुक्तये भवति। बन्धुः अपि तावद् मोक्षं प्रति प्रतिकूल एव स्नेहादिबन्धनायतनत्वाद तस्माद् युक्तम् अवधारणम् ‘आत्मा एव हि आत्मनो बन्धुः’ इति। आत्मा एव रिपुः शत्रुः यः अन्यः अपकारी बाह्यः सः अपि आत्मप्रयुक्त एव इति, युक्तम् एव अवधारणम् आत्मा एव रिपुः आत्मन इति।।5।। क्योंकि यह आप ही अपना बन्धु है। दूसरा कोई (ऐसा) बन्धु नहीं है जो संसार से मुक्त करने वाला हो। प्रेमादि भाव बन्धन के स्थान होने के कारण सांसारिक बन्धु भी (वास्तव में) मोक्षमार्ग का तो विरोधी ही होता है। इसलिए निश्चयपूर्वक यह कहना ठीक ही है कि आप ही अपना बन्धु है। तथा आप ही अपना शत्रु है। जो कोई दूसरा अनिष्ट करने वाला बाह्य शत्रु है वह भी अपना ही बनाया हुआ होता है, इसलिए आप ही अपना शत्रु है, इस प्रकार केवल अपने को ही शत्रु बतलाना भी ठीक ही है।।5।। आत्मा एव बन्धुः आत्मा एव रिपुः आत्मन इति उक्तम्, तत्र किंलक्षण आत्मनो बन्धुः किंलक्षणो वा आत्मनो रिपुः इति उच्यते- आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है यह बात कही गयी, उसमें किन लक्षणों वाला पुरुष तो (आप ही) अपना मित्र होता है और कौन (आप ही) अपना शत्रु होता है? सो कहा जाता है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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