श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 259

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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षष्ठम अध्याय

तस्माद् मुनेः योगम् आरुरुक्षोः प्रतिपन्नगार्हस्थ्यस्य अग्निहोत्रादि फलनिरपेक्षम् अनुष्ठीयमानं ध्यानयोगारोहणसाधनत्वं सत्वशुद्धिद्वारेण प्रतिपद्यते।

इति स सन्न्यासी च योगी च इति स्तूयते- श्री भगवानुवाच-

इसलिए (यह सिद्ध हुआ कि) जो गृहस्थाश्रम में स्थित पुरुष योगारूढ होने की इच्छावाला और मननशील है, उसके फल न चाहकर अनुष्ठान किए हुए अग्निहोत्री कर्म अंतःकरण की शुद्धि द्वारा ध्यानयोग में आरूढ होने के साधन बन सकते हैं।

इसी भाव से ‘वह संन्यासी और योगी है’ इस प्रकार की उसकी स्तुति की जाती है- भगवान् श्रीकृष्ण बोले-

अनाश्रितो न आश्रितः अनाश्रितः किं कर्मफलं कर्मणः फलं कर्मफलं यत् तद् अनाश्रितः कर्मफलतृष्णारहित इत्यर्थः।

यो हि कर्मफलतृष्णावान् स कर्मफलम् आश्रितो भवति अयं तु तद्विपरीतः अतः अनाश्रितः कर्मफलम्।

एवम्भूतः सन् कार्यं कर्तव्यं नित्यं काम्य विपरीतम् अग्निनहोत्रादिकं करोति निर्वर्तयति,

जिसने आश्रय नहीं लिया हो, वह अनाश्रित है, किसका? कर्मफल का अर्थात् जो कर्मों के फल का आश्रय न लेने वाला कर्मफल की तृष्णा से रहित है।

क्योंकि जो कर्मफल की तृष्णावाला होता है वही कर्मफल का आश्रय लेता है, यह उससे विपरीत है, इसलिए कर्मफल का आश्रय न लेने वाला है।

ऐसा (कर्मफल के आश्रय रहित) होकर जो पुरुष कर्तव्यकर्मों को अर्थात् काम्यकर्मों से विपरीत नित्य अग्निहोत्रादि कर्मों को पूरा करता है,

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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