श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
पंचम अध्यायशक्नोति उत्सहते इह एव जीवन् एव यः सोढुं प्रसहितुं प्राक् पूर्वं शरीरविमोक्षणात् आमरणात्। मरणसीमाकरणं जीवतः अवश्यम्भावी हि कामक्रोधोद्भवो वेगः अनन्तनिमित्तवान् हि स इति, यावद् मरणं तावद् न विश्रम्भणीय इत्यर्थः। जो मनुष्य यहाँ- जीवितावस्था में ही शरीर छूटने से पहले-पहले अर्थात् मरणपर्यन्त (काम-क्रोध से उत्पन्न हुए वेग को) सहन कर सकता है अर्थात् सहन करने का उत्साह रखता है। (वही युक्त और सुखी है)। जीवित पुरुष के अंतःकरण में काम-क्रोध का वेग अवश्य ही होता है, इसलिए मरणपर्यन्त की सीमा की गयी है; क्योंकि वह काम-क्रोध जनित वेग अनेक निमित्तों से प्रकट होने वाला है, अतः मरने तक उसकाक विश्वास न करे। (सदैव उससे सावधान रहे) यह अभिप्राय है। काम इन्द्रियोगचरप्राप्ते इष्टे विषये श्रूयमाणे स्मर्यमाणे वा अनुभूते सुखहेतौ या गर्धिः तृष्णा स कामः। क्रोधः च आत्मनः प्रतिकूलेषु दुःखहेतु, दृश्यमानेषु श्रूयमाणेषु स्मर्यमाणेषु वा यो द्वेषः स क्रोधः। किसी अनुभव किये हुए सुखदायक इष्ट विषय के इन्द्रियगोचर हो जाने पर यानी सुन जाने पर या स्मरण हो जाने पर उसको पाने की जो लालसा- तृष्णा होती है, उसका नाम काम है। वैसे ही अपने प्रतिकूल दुःखदायक विषयों के दीखने, सुनायी देने या स्मरण होने पर उनमें जो द्वेष होता है उसका नाम क्रोध है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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