श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 248

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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पंचम अध्याय

शक्नोति उत्सहते इह एव जीवन् एव यः सोढुं प्रसहितुं प्राक् पूर्वं शरीरविमोक्षणात् आमरणात्।

मरणसीमाकरणं जीवतः अवश्यम्भावी हि कामक्रोधोद्भवो वेगः अनन्तनिमित्तवान् हि स इति, यावद् मरणं तावद् न विश्रम्भणीय इत्यर्थः।

जो मनुष्य यहाँ- जीवितावस्था में ही शरीर छूटने से पहले-पहले अर्थात् मरणपर्यन्त (काम-क्रोध से उत्पन्न हुए वेग को) सहन कर सकता है अर्थात् सहन करने का उत्साह रखता है। (वही युक्त और सुखी है)।

जीवित पुरुष के अंतःकरण में काम-क्रोध का वेग अवश्य ही होता है, इसलिए मरणपर्यन्त की सीमा की गयी है; क्योंकि वह काम-क्रोध जनित वेग अनेक निमित्तों से प्रकट होने वाला है, अतः मरने तक उसकाक विश्वास न करे। (सदैव उससे सावधान रहे) यह अभिप्राय है।

काम इन्द्रियोगचरप्राप्ते इष्टे विषये श्रूयमाणे स्मर्यमाणे वा अनुभूते सुखहेतौ या गर्धिः तृष्णा स कामः।

क्रोधः च आत्मनः प्रतिकूलेषु दुःखहेतु, दृश्यमानेषु श्रूयमाणेषु स्मर्यमाणेषु वा यो द्वेषः स क्रोधः।

किसी अनुभव किये हुए सुखदायक इष्ट विषय के इन्द्रियगोचर हो जाने पर यानी सुन जाने पर या स्मरण हो जाने पर उसको पाने की जो लालसा- तृष्णा होती है, उसका नाम काम है।

वैसे ही अपने प्रतिकूल दुःखदायक विषयों के दीखने, सुनायी देने या स्मरण होने पर उनमें जो द्वेष होता है उसका नाम क्रोध है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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