श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
पंचम अध्यायअतः समं ब्रह्म न दोषगन्धमात्रम् अपि तान् स्पृशति, देहादिसंघातात्मदर्शनाभिमानाभावात्। देहादिसंघातात्मदर्शनाभिमानवद्विषयं तु तत् सूत्रम् ‘समासमाभ्यां विषमसमे पूजातः’ इति पूजाविषयत्वविशेषणात्। अतः (यह सिद्ध हुआ कि) ब्रह्म सम है और एक ही है। इसलिए वे समदर्शी पुरुष ब्रह्म में ही स्थित हैं, इसी कारण उनको दोष की गंध भी स्पर्श नहीं कर पाती; क्योंकि उनमे से देहादि संघात को आत्मा रूप से देखने का अभिमान जाता रहा है। ‘समासमाभ्यां विषमसजे पूजातः’ यह सूत्र पूजाविषयक विशेषण से युक्त होने के कारण देहादि संघात में आत्मदृष्टि के अभिमान वाले पुरुषों के विषय में है। दृश्यते हि ब्रह्मवित् षडंगवित् चतुर्वेदविद् इति पूजादानादौ गुण विशेषसंबंधः कारणम्। ब्रह्म तु सर्वगुणदोषसंबंधवर्जितम् इति अतो ब्रह्मणि ते स्थिता इति युक्तम्। कर्मिविषयं च ‘समासमाभ्याम्’ इत्यादि, इदं तु सर्वकर्मसन्न्यासिविषयं प्रस्तुतम् ‘सर्व कर्माणि मनसा’ इति आरभ्य आध्यायपरिसमाप्तेः।।19।। क्योंकि पूजा, दान आदि कर्मों में (भेद बुद्धि का) कारण ‘ब्रह्मवेत्ता’ ‘छओं अंगों को जानने वाला’ ‘चारों वेदों को जानने वाला’ इत्यादि विशेष गुणों का संबंध देखा जाता है। परंतु ब्रह्म संपूर्ण गुण-दोषों के संबंध से रहित है, इसलिए यह (कहना) ठीक है कि वे ब्रह्म में स्थित हैं। इसके अतिरिक्त ‘समासमाभ्याम्’ इत्यादि कथन तो कर्मियों के विषय में है और यह ‘सर्वकर्माणि मनसा’ इन श्लोक से लेकर अध्यायसमाप्तितक सारा प्रकरण सर्व-कर्म-संन्यासी के विषय में है।।19।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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