श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
पंचम अध्यायन कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु: । न कर्तृत्वं कुरु इति न अपि कर्माणि रथघटप्रासादादीनि ईप्सिसततमानि लोकस्य सृजति उत्पादयति प्रभुः आत्मा, न अपि रथादिकृतवतः तत्फलेन संयोगं न कर्मफलसंयोगम्। यदि किञ्चिद् अपि स्वतो न करोति न कारयति च देही कः तर्हि कुर्वन् कारयन् च प्रवर्तते इति उच्यते। स्वभावः तु स्वो भावः स्वभावः अविद्यालक्षणा प्रकृतिः माया प्रवर्तते ‘दैवी हि’ इत्यादिना वक्ष्यमाणा।।14।। परमार्थतः तु- देहादिका का स्वामी आत्मा न तो ‘तू अमुक कर्म कर’ इस प्रकार लोगों के कर्तापन को उत्पन्न करता है, और न रथ, घट, महल आदि कर्म जो अत्यंत इष्ट हैं उनको रचता है तथा न रथादि बनाने वाले का उसका कर्म फल के साथ संयोग ही रचता है- यदि यह देहादि का स्वामी आत्मा स्वयं कुछ भी नहीं करता-कराता, तो फिर यह सब कौन कर रहा और करा रहा है? इस पर कहते हैं- स्वभाव ही बर्तता है अर्थात् जो अपना भाव है, अविद्या जिसका स्वरूप है, जो ‘दैवी हि’ इत्यादि श्लोकों से आगे कही जाने वाली है, वह प्रकृति यानी माया ही सब कुछ कर रही है।।14।। वास्तव में तो- नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु: । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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