श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
पंचम अध्यायसन्न्यासः कर्मणां परित्यागः कर्मयोगः च तेषाम् अनुष्ठानं तौ उभौ अपि निःश्रेयसकरौ निःश्रेयसं मोक्षं कुर्वाते। ज्ञानोत्पत्तिहेतुत्वेन उभौ यद्यपि निःश्रेयसकरौ तथापि तयोः तु निःश्रेयसहेत्वोः कर्मसन्न्यासात् केवलात् कर्मयोगो विशिष्यते इति कर्मयोगं स्तौति।।2।। कस्मात्, इति आह- संन्यास- कर्मों का परित्याग और कर्मयोग उनका अनुष्ठान करना, ये दोनों ही कल्याणकारक अर्थात् मुक्ति के देने वाले हैं। यद्यपि ज्ञान की उत्पत्ति में हेतु होने से ये दोनों ही कल्याणकारक हैं तथापि कल्याण के उन दोनों कारणों में ज्ञानरहित केवल संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग श्रेष्ठ है। इस प्रकार भगवान् कर्मयोग की स्तुति करते हैं।।2।। (कर्मयोग श्रेष्ठ) कैसे है? इस पर कहते हैं- ज्ञेय: स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति । ज्ञेयो ज्ञातव्यः स कर्मयोगी नित्यसन्न्यासी इति, यो न द्वेष्टि किञ्चिद् न काङ्क्षति, दुःखसुखे तत्साधने च एवंविधो यः कर्मणि वर्तमानः अपि स नित्यसन्न्यासी इति ज्ञातव्य इत्यर्थः। निर्द्वंद्वो द्वन्द्वर्जितो हि यस्माद् महाबाहो सुखं बन्धाद् अनायासेन प्रमुच्यते।।3।। उस कर्मयोगी को सदा संन्यासी ही समझना चाहिए कि जो न तो द्वेष करता है और न किसी वस्त की आकाङ्क्षा ही करता है। अर्थात् जो सुख, दुःख और उनके साधनों में उक्त प्रकार से राग द्वेषरहित हो गया है, वह कर्म में बर्तता हुआ भी सदा संन्यासी ही है ऐसे समझना चाहिए। क्योंकि हे महाबाहो! राग द्वेषादि द्वंद्वों से रहित हुआ पुरुष सुखपूर्वक- अनायास ही बंधन से मुक्त हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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