श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
चतुर्थो अध्यायकिं च- अपरे नियताहार: प्राणान्प्राणेषु जुहृति । अपरे नियताहार नियतः परिमित आहारो येषां ते नियताहाराः सन्तः, प्राणान् वायुभेदान् प्राणेषु एव जुह्वति यस्य यस्य वायोः जयः क्रियते इतरान् वायुभेदान् तस्मिन् तस्मिन् जुह्वति ते तत्र प्रविष्टा इव भवन्ति। सर्वे अपि एते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः यज्ञैः यथोक्तैः क्षपितो नाशितः कल्मषो येषां ते यज्ञक्षपितकल्मषाः।।30।। एवं यथोक्त यज्ञान निर्वर्त्य- अन्य कितने ही नियताहारी अर्थात् जिनका आह9र नियमित किया हुआ है ऐसे परिमित भोजन करने वाले प्राणों को यानि वायु के भिन्न-भिन्न भेदों को प्राणों में ही हवन किया करते हैं। भाव यह है कि वे जिस-जिस वायु को जीत लेते हैं उसी में वायु के दूसरे भेदों को हवन कर देते हैं यानी वे सब वायु भेद उसमें विलीन से हो जाते हैं। ये सभी पुरुष यज्ञों को जानने वाले और यज्ञों द्वारा निष्पाप हो गये होते हैं अर्थात् उपर्युक्त यज्ञों द्वारा जिनके सब पाप नष्ट हो गये हैं, वे ‘यज्ञक्षपितकल्मष’ कहलाते हैं।।30।। इस प्रकार उपर्युक्त यज्ञों का संपादन करके- यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्मा सनातनम् । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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