श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 204

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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चतुर्थो अध्याय

किं च-

अपरे नियताहार: प्राणान्प्राणेषु जुहृति ।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषा: ॥30॥

अपरे नियताहार नियतः परिमित आहारो येषां ते नियताहाराः सन्तः, प्राणान् वायुभेदान् प्राणेषु एव जुह्वति

यस्य यस्य वायोः जयः क्रियते इतरान् वायुभेदान् तस्मिन् तस्मिन् जुह्वति ते तत्र प्रविष्टा इव भवन्ति।

सर्वे अपि एते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः यज्ञैः यथोक्तैः क्षपितो नाशितः कल्मषो येषां ते यज्ञक्षपितकल्मषाः।।30।।

एवं यथोक्त यज्ञान निर्वर्त्य-

अन्य कितने ही नियताहारी अर्थात् जिनका आह9र नियमित किया हुआ है ऐसे परिमित भोजन करने वाले प्राणों को यानि वायु के भिन्न-भिन्न भेदों को प्राणों में ही हवन किया करते हैं।

भाव यह है कि वे जिस-जिस वायु को जीत लेते हैं उसी में वायु के दूसरे भेदों को हवन कर देते हैं यानी वे सब वायु भेद उसमें विलीन से हो जाते हैं।

ये सभी पुरुष यज्ञों को जानने वाले और यज्ञों द्वारा निष्पाप हो गये होते हैं अर्थात् उपर्युक्त यज्ञों द्वारा जिनके सब पाप नष्ट हो गये हैं, वे ‘यज्ञक्षपितकल्मष’ कहलाते हैं।।30।। इस प्रकार उपर्युक्त यज्ञों का संपादन करके-

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्मा सनातनम् ।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरुसत्तम ॥31॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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