श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
चतुर्थो अध्यायलोकव्यवहारसामान्यदर्शनेन तु लौकिकैः आरोपितकर्तृत्वे भिक्षाटनादौ कर्मणि कर्ता भवति स्वानुभवेन तु शास्त्रप्रमाणादिजनितेन अकर्ता एव। स एवं पराध्यारोपितकर्तृत्वः शरीरस्थिति मात्र प्रयोजनं भिक्षाटनादिकं कर्म कृत्वा अपि न निबध्यते, बन्धहेतोः कर्मणः सहेतुकस्य ज्ञानाग्ना दग्धत्वाद् इति उक्तानुवाद एव एषः।।22।। ‘त्यक्त्वा कर्मपलासंगम्’ इति अनेन श्लोकेन यः प्रारब्धकर्म सन् यदा निष्क्रियब्रह्मात्मदर्शन संपन्नः स्यात् तदा तस्य आत्मनः कर्तुकर्म प्रयोजनाभावदर्शिनः कर्मपरित्यागे प्राप्ते कुतश्चिद् निमित्तात् तदसम्भवे सति पूर्ववत् तस्मिन् कर्मणि अभिप्रवृत्तः अपि न एव किञ्चित् करोति स इति कर्माभावः अपि न एव किञ्चित् करोति स इति कर्माभावः प्रदर्शितः। यस्य एवं कर्माभावो दर्शितः तस्य एव- ऐसा पुरुष लोक व्यवहार की साधारण दृष्टि से तो सांसारिक पुरुषों द्वारा आरोपित किए हुए कर्तापन के कारण भिक्षाटनादि कर्मों का कर्ता होता है। परंतु शास्त्र प्रमाण आदि से उत्पन्न अपने अनुभव से (वस्तुतः) वह अकर्ता ही रहता है। इस प्रकार दूसरों द्वारार जिस पर कर्तापन का अधारोप किया गया है, ऐसा वह पुरुष शरीर निर्वाह मात्र के लिए किये जाने वाले भिक्षाटनादि कर्मों को करता हुआ भी नहीं बँधता; क्योंकि ज्ञानरूप अग्नि द्वारा उसके (समस्त) बन्धनकारक कर्म हेतु सहित भस्म हो चुके हैं। यह पहले कहे हुए का ही अनुवादमात्र है।।22।। जो कर्म करना प्रारम्भ कर चुका है, ऐसा पुरुष जब कर्म करते-करते इस ज्ञान से संपन्न हो जाता है कि ‘निष्क्रिय ब्रह्म ही आत्मा है’ तब अपने कर्ता, कर्म और प्रयोजनादि का अभाव देखने वाले उस पुरुष के लिए कर्मों का त्याग कर देना ही उचित होता है। किंतु किसी कारणवश कर्मों का त्याग करना असंभव होने पर यदि वह पहले की तरह उन कर्मों में लगा रहे तो भी, वास्तव में कुछ भी नहीं करता। इस प्रकार ‘त्यक्त्वा कर्मफलासंगम्’ इस श्लोक से (ज्ञानी के) कर्मों का अभाव (अकर्मत्व) दिखलाया जा चुका है। जिस पुरुष के कर्मों का इस प्रकार अभाव दिखाया गया है, उसी के (विषय में अगला श्लोक कहते हैं)- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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