श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
चतुर्थो अध्यायएवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वः अपि अतिक्रान्तैः मुमुक्षुभिः, कुरु तेन कर्म एव त्वं न तृष्णीम् आसनं न अपि सन्न्यासः कर्तव्यः। तस्मात् त्वं पूर्वैः अपि अनुष्ठितत्वाद् यदि अनात्मज्ञः त्वं तदा आत्मशुद्ध्यर्थं तत्ववित् चेद् लोकसङ्ग्रहार्थं पूर्वैः जनकादिभिः पूर्वतरं कृतं न अधुनातनं कृतं निर्वर्तितम्।।15।। तत्र कर्म चेत् कर्तव्यं त्वद्वचनाद् एव करोमि अहं किं विशेषितेन पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् इति, उच्यते यस्माद् महद् वैषम्यं कर्मणि, कथम्- ऐसा समझकर ही पूर्वकाल के मुमुक्षु पुरुषों ने भी कर्म किये थे। इसलिए तू भी कर्म ही कर। तेरे लिए चुपचाप बैठ रहना या संन्यास लेना यह दोनों ही कर्तव्य नहीं है। क्योंकि पूर्वजों ने भी कर्म का आचरण किया है, इसलिए यदि तू आत्मज्ञानी नहीं है तब तो अंतःकरण की शुद्धि के लिए और यदि तत्वज्ञानी है तो लोकसंग्रह के लिए जनकादि पूर्वजों द्वारा सदा से किये हुए (प्रकार से ही) कर्म कर, नये ढंग से किए जाने वाले कर्म तम कर*।।15।। यदि कर्म ही कर्तव्य है तो मैं आपकी आज्ञा से ही करने को तैयार हूँ फिर ‘पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्’ विशेषण देने की क्या आवश्यकता है? इस पर कहते हैं कि कर्म के विषय में बड़ी भारी विषमता है अर्थात् कर्म का विषय बड़ा गहन है। सो किस प्रकार है- किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता: । किं कर्म किं च अकर्म इति कवयो मेधाविनः अपि अत्र अस्मिन् कर्मादिविषये मोहिता मोहं गताः। अतः ते तुभ्यम् अहं कर्म अकर्म च प्रवक्ष्यामि यद् ज्ञात्वा विदित्वा कर्मादि मोक्ष्य से अशुभात् संसारात्।।16।। कर्म क्या है और अकर्म क्या है, इस कर्मादि के विषय में बड़े-बड़े बुद्धिमान भी मोहित हो चुके हैं, इसलिए मैं तुझे वह कर्म और अकर्म बतलाऊंगा जिस कर्मादि को जानकर तू अशुभ से यानी संसार से मुक्त हो जाएगा।।16।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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