श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
चतुर्थो अध्यायया वासुदेव अनीश्वरासर्वज्ञाशंका मूर्खाणां तां परिहरन् श्रीभगवानुवाच यदर्थो हि अर्जुनस्य प्रश्न- भगवान् श्रीवासुदेव के विषय में मूर्खों की जो ऐसी शंका है कि ये ईश्वर नहीं हैं, सर्वज्ञ नहीं है तथा जिस शंका को दूर करने के लिए ही अर्जुन का यह प्रश्न है, उसका निवारण करते हुए श्रीभगवान् बोले- बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन । बहूनि मे मम व्यतीतानि अतिक्रान्तानि जन्मानि तव च हे अर्जुन तानि अहं वेद जाने सर्वाणि न त्वं वेत्थ जानीषे, धर्माधर्मादिप्रतिबद्धज्ञानशक्तित्वात्। अहं पुनः नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावत्वाद् अनावरणज्ञानशक्तिः इति वेद अहं हे परन्तप।।5।। कथं तर्हि तव नित्येश्वरस्य धर्माधर्माभावे अपि जन्म इति उच्यते- हे अर्जुन! मेरे और तेरे पहले बहुत जन्म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ, तू नहीं जानता; क्योंकि पुण्य पाप आदि के संस्कारों से तेरी ज्ञानशक्ति आच्छादित हो रही है। परंतु मैं तो नित्य – शुद्ध –बुद्ध-मुक्त-स्वभाववाला हूँ, इस कारण मेरी ज्ञानशक्ति आवरणरहित है, इसलिए हे परन्तप! मैं (सब कुछ) जानता हूँ।।5।। तो फिर आप नित्य ईश्वर का पुण्य-पाप से संबंध न होने पर भी जन्म कैसे होता है? इस पर कहा जाता है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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