श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 159

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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तृतीय अध्याय

इस पर कहते हैं-

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।।40।।

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः च अस्य कामस्य अधिष्ठानम् आश्रय उच्यते। एतैः इन्द्रियादिभिः आश्रयैः विमोहयति विविधं मोहयति एष कामो ज्ञानम् आवृत्य आच्छाद्य देहिनं शरीरिणम्।।40।। यत एवम्-

इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि यह सब इस काम के अधिष्ठान अर्थात् रहने के स्थान बतलाये जाते हैं। यह काम इन आश्रयभूत इन्द्रियों के द्वारा ज्ञान को आच्छादित करके इस जीवात्मा को नाना प्रकार से मोहित किया करता है।।40।। जब कि ऐसा है-

तस्मात्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।41।।

तस्मात् त्वम् इन्द्रियाणि आदौ पूर्वं नियम्य वशीकृत्य भरतर्षभ पाप्मानं पापाचारं कामं प्रजहि हि परित्यज, एनं प्रकृतं वैरिणं ज्ञान विज्ञाननाशनम्।

ज्ञानं शास्त्रत आचार्यतः च आत्मादीनाम् अवबोधः, विज्ञानं विशेषतः तदनुभवः तयोः ज्ञानविज्ञानयोः श्रेयः प्राप्तिहेत्वोः नाशनं प्रजहि हि आत्मनः परित्यज इत्यर्थः।।41।।

इसलिए हे भरतर्षभ! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके ज्ञान और विज्ञान के नाशक इस ऊपर बतलाये हुए वैरी पापाचारी काम का परित्याग कर।

अभिप्राय यह कि शास्त्र और आचार्य के उपदेश से जो आत्मा अनात्मा और विद्या-अविद्या आदि पदार्थों का बोध होता है उसका नाम ‘ज्ञान’ है, एवं उसका जो विशेषरूप से अनुभव है उसका नाम विज्ञान है, अपने कल्याण की प्राप्ति के कारण रूप उन ज्ञान और विज्ञान को यह काम नष्ट करने वाला है, इसलिए इसका परित्याग कर।।41।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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