श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
तृतीय अध्यायन मे मम पार्थ न अस्ति न विद्यते कर्तव्यं त्रिषु अपि लोकेषु किञ्चन कञ्चिद् अपि। कस्माद् न अनवाप्तम् अप्राप्तम् अवाप्तव्यं प्रापणीयं तथापि वर्ते एव च कर्मणि अहम्।।22।। हे पार्थ! तीनों लोकों में मेरा कुछ भी कर्तव्य नहीं है अर्थात् मुझे कुछ भी करना नहीं है; क्योंकि मुझे कोई भी अप्राप्त वस्तु प्राप्त नहीं करनी है तो भी मैं कर्मों में बर्तता ही हूँ।।22।। यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः। यदि पुनः अहं न वर्तेयं जाति कदाचित् कर्मणि अतन्द्रितः अनलसः सन् मम श्रेष्ठस्य सतो वर्त्म मार्गम् अनुवर्तन्ते मनुष्या हे पार्थ सर्वशः सर्वप्रकारैः।।23।। तथा च को दोष इति आह- यदि मैं कदाचित् आलस्यरहित- सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ, तो हे पार्थ! ये मनुष्य सब प्रकार से मुझ श्रेष्ठ के मार्ग का अनुकरण कर रहे हैं।।23।। ऐसा होने से क्या दोष हो जाएगा? सो कहते हैं- उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्। उत्सीदेयुः विनश्येयुः इमे सर्वे लोका लोकस्थितिनिमित्तस्य कर्मणः अभावात्, न कुर्यां कर्म चेद्त अहम्, किं च संकरस्य च कर्ता स्याम्। तेन कारणेन उपहन्याम् इमाः प्रजाः प्रजानाम् अनुग्रहाय प्रवृत्तः तद् उपहितम् उपहननं कुर्याम् इत्यर्थः। मम ईश्वरस्य अननुरूपम् आपद्येत।।24।। यदि मैं कर्म न करूँ तो लोकस्थिति के लिए किये जाने वाले कर्मों का अभाव हो जाने से यह सब लोक नष्ट हो जाएंगे और मैं वर्णसंकर का कर्ता होऊँगा, इसलिए इस प्रजा का नाश भी करूँगा, अर्थात् प्रजा पर अनुग्रह करने में लगा हुआ मैं इनका हनन करने वाला बनूँगा। यह सब मुझ ईश्वर के अनुरूप नहीं होगा।।24।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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