श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 143

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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तृतीय अध्याय

प्रयोजननिमित्तक्रियासाध्यो व्यपाश्रयो व्यपाश्रयणम्। कञ्चिद् भूतविशेषम् आश्रित्य न साध्यः कश्चिद अर्थः अस्ति। येन तदर्था क्रिया अनुष्ठेया स्यात्।

न त्वम् एतस्मिन् सर्वतः सम्प्लुतोदकस्थानीये सम्यग्दर्शने वर्तसे।।18।। यत एवम्-

किसी फल के लिए (किसी प्राणि विशेष का) जो क्रिया साध्य आश्रय है उसका नाम अर्थ व्यपाश्रय है सो इस आत्मज्ञानी को, किसी प्राणि विशेष का सहारा लेकर कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं करना है जिससे कि उसे तदर्थक किसी क्रिया का आरंभ करना पड़े।

परंतु तू इस सब ओर से परिपूर्ण जलाशयस्थानीय यथार्थ ज्ञान में स्थित नहीं है।।18।। जब कि ऐसी बात है-

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचार।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोतित पुरुषः।।19।।

तस्माद् असक्तः संगवर्जितः सततं सर्वदा कार्यं कर्तव्यं नित्यं कर्म समाचर निर्वर्तय। असक्तो हि यस्मात् समाचरन् ईश्वरार्थं कर्म कुर्वन् परं मोक्षम् आप्नोति पूरषः सत्वशुद्धिद्वारेण इत्यर्थः।।19।। यस्मात् च-

इसलिए तू आसक्ति रहित होकर कर्तव्य नित्यकर्मों का सदा भलीभाँति आचरण किया कर। क्योंकि अनासक्त होकर कर्म करने वाला अर्थात् ईश्वरार्थ कर्म करता हुआ पुरुष अन्तःकरण की शुद्धि द्वारा मोक्षरूप परमपद पा लेता है।।19।। एक और भी कारण है-

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।।20।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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