श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
तृतीय अध्यायप्रयोजननिमित्तक्रियासाध्यो व्यपाश्रयो व्यपाश्रयणम्। कञ्चिद् भूतविशेषम् आश्रित्य न साध्यः कश्चिद अर्थः अस्ति। येन तदर्था क्रिया अनुष्ठेया स्यात्। न त्वम् एतस्मिन् सर्वतः सम्प्लुतोदकस्थानीये सम्यग्दर्शने वर्तसे।।18।। यत एवम्- किसी फल के लिए (किसी प्राणि विशेष का) जो क्रिया साध्य आश्रय है उसका नाम अर्थ व्यपाश्रय है सो इस आत्मज्ञानी को, किसी प्राणि विशेष का सहारा लेकर कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं करना है जिससे कि उसे तदर्थक किसी क्रिया का आरंभ करना पड़े। परंतु तू इस सब ओर से परिपूर्ण जलाशयस्थानीय यथार्थ ज्ञान में स्थित नहीं है।।18।। जब कि ऐसी बात है- तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचार। तस्माद् असक्तः संगवर्जितः सततं सर्वदा कार्यं कर्तव्यं नित्यं कर्म समाचर निर्वर्तय। असक्तो हि यस्मात् समाचरन् ईश्वरार्थं कर्म कुर्वन् परं मोक्षम् आप्नोति पूरषः सत्वशुद्धिद्वारेण इत्यर्थः।।19।। यस्मात् च- इसलिए तू आसक्ति रहित होकर कर्तव्य नित्यकर्मों का सदा भलीभाँति आचरण किया कर। क्योंकि अनासक्त होकर कर्म करने वाला अर्थात् ईश्वरार्थ कर्म करता हुआ पुरुष अन्तःकरण की शुद्धि द्वारा मोक्षरूप परमपद पा लेता है।।19।। एक और भी कारण है- कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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