श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
तृतीय अध्याययह कहते हैं- कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। कर्मेन्द्रियाणि हस्तादीनि संयम्य संहृत्य य आस्ते तिष्ठति मनसा स्मरन् चिन्तयन् इन्द्रियार्थान् विषयान् विमूढात्मा विमूढान्तःकरणो मिथ्याचारो मृषाचारः पापाचारः स उच्यते।।6।। जो मनुष्य हाथ, पैर आदि कर्मेन्द्रियों को रोककर इन्द्रियों के भोगों को मन से चिन्तन करता रहता है, वह विमूढात्मा अर्थात् मोहित अंतःकरण वाला मिथ्याचारी, ढोंगी, पापाचारी कहा जाता है।।6।। यस्तित्वन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। यः तु पुनः कर्मणि अधिकृतः अज्ञो बुद्धीन्द्रियाणि मनसा नियम्य आरभते अर्जुन कर्मेन्द्रियैः वाक्यपाण्यादिभिः। 'किम् आरभते इति आह-' कर्मयोगम् असक्तः सन् स विशिष्यते इतरस्माद् मिथ्याचारात्।।7।। परंतु हे अर्जुन! जो कर्मों का अधिकारी अज्ञानी, ज्ञानेन्द्रियों को मन से रोककर वाणी, हाथ इत्यादि कर्मेन्द्रियों से आचरण करता है। किसका आचरण करता है? सो कहते हैं- आसक्तिरहित होकर कर्मयोग का आचरण करता है, वह (कर्मयोगी) दूसरे की अपेक्षा अर्थात् मिथ्याचारियों की अपेक्षा श्रेष्ठ है।।7।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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