श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 133

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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तृतीय अध्याय

यह कहते हैं-

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।।

कर्मेन्द्रियाणि हस्तादीनि संयम्य संहृत्य य आस्ते तिष्ठति मनसा स्मरन् चिन्तयन् इन्द्रियार्थान् विषयान् विमूढात्मा विमूढान्तःकरणो मिथ्याचारो मृषाचारः पापाचारः स उच्यते।।6।।

जो मनुष्य हाथ, पैर आदि कर्मेन्द्रियों को रोककर इन्द्रियों के भोगों को मन से चिन्तन करता रहता है, वह विमूढात्मा अर्थात् मोहित अंतःकरण वाला मिथ्याचारी, ढोंगी, पापाचारी कहा जाता है।।6।।

यस्तित्वन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।7।।

यः तु पुनः कर्मणि अधिकृतः अज्ञो बुद्धीन्द्रियाणि मनसा नियम्य आरभते अर्जुन कर्मेन्द्रियैः वाक्यपाण्यादिभिः

'किम् आरभते इति आह-'

कर्मयोगम् असक्तः सन् स विशिष्यते इतरस्माद् मिथ्याचारात्।।7।।

परंतु हे अर्जुन! जो कर्मों का अधिकारी अज्ञानी, ज्ञानेन्द्रियों को मन से रोककर वाणी, हाथ इत्यादि कर्मेन्द्रियों से आचरण करता है। किसका आचरण करता है? सो कहते हैं-

आसक्तिरहित होकर कर्मयोग का आचरण करता है, वह (कर्मयोगी) दूसरे की अपेक्षा अर्थात् मिथ्याचारियों की अपेक्षा श्रेष्ठ है।।7।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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