श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 128

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

Prev.png

तृतीय अध्याय

तथा कर्मयोग से कर्मयोगियों की अर्थात् कर्म करने वालों की निष्ठा कही है।

यदि एक पुरुष द्वारा एक ही प्रयोजन की सिद्धि के लिए ज्ञान और कर्म दोनों एक साथ अनुष्ठान करने योग्य हैं, ऐसा अपना अभिप्राय भगवान् द्वारा गीता में पहले कहीं कहा गया होता, या आगे कहा जाने वाला होता, अथवा वेद में कहा गया होता तो शरण में आये हुए प्रिय अर्जुन को यहाँ भगवान् यह कैसे कहते कि निष्ठा और कर्मनिष्ठा अलग-अलग भिन्न-भिन्न अधिकारियों द्वारा ही अनुष्ठान की जाने योग्य हैं।

यदि भगवान् का यह अभिप्राय मान लिया जाए कि ज्ञान और कर्म दोनों को सुनकर अर्जुन स्वयं ही दोनों का अनुष्ठान कर लेगा, दोनों को भिन्न-भिन्न पुरुषों द्वारा अनुष्ठान करने योग्य तो दूसरों के लिए कहूँगा। तब तो भगवान् को राग द्वेषयुक्त और अप्रामाणिक मानना हुआ। ऐसा मानना सर्वर्था अनुचित है।

इसलिए किसी भी युक्ति से ज्ञान और कर्म का समुच्चय नहीं माना जा सकता है।

कर्मों की अपेक्षा ज्ञान की श्रेष्ठता जो अर्जुन ने कही थी वह तो सिद्ध है ही, क्योंकि भगवान् ने उसका निराकरण नहीं किया।

उस ज्ञाननिष्ठा के अनुष्ठान का अधिकार संन्यासियों का ही है; क्योंकि दोनों निष्ठा भिन्न-भिन्न पुरुषों द्वारा अनुष्ठान करने योग्य बतलायी गयी हैं। इस कारण भगवान् की यही सम्मति है। यह प्रतीत है।।3।।

मां च बन्धकारमे कर्मणि एव नियोजयसि इति विषण्णमनसम् अर्जुनं कर्म न आरभे इति एवं मन्वानम् आलक्ष्य आह भगवान्- ‘न कर्मणामनारम्भात्’- इति।

अथ वा ज्ञानकर्मनिष्ठयोः परस्परविरोधाद्

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः