श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 117

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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तृतीय अध्याय

एतद् अपि विरुद्धम्। कथम्, गृहस्थस्य एव स्मार्तकर्मणा समुच्चिताद् ज्ञानाद् मोक्षः प्रतिषिध्यते न तु आश्रमान्तराणाम् इति कथं विवेकिभिः शक्यम् अवधारयितुम्।

किं च यदि मोक्षसाधनत्वेन स्मार्तानि कर्माणि ऊर्ध्वरेतसां समुच्चीयन्ते तथा गृहस्थस्य अपि इष्यतां स्मार्तैः एव समुच्चयो न श्रौतैः।

अथ श्रौतैः स्मार्तैः च गृहस्थस्य आयासबहुल्यं श्रौतं स्मार्तं च बहुदुःखरूपं कर्म शिरसि अरोपितं स्यात्।

अथ गृहस्थस्य एव आयासबाहुल्यकारणाद् मोक्षः स्याद् न आश्रमान्तराणां श्रौतनित्यकर्म रहितत्वाद् इति।

तद् अपि असत्। सर्वोपनिषत्सु इतिहास- पुराणयोगशास्त्रे च ज्ञानांगत्वेन मुमुक्षोः सर्व-

कर्मसन्न्यासविधानाद् आश्रमविकल्पसमुच्चय- विधानात् श्रुतिस्मृत्योः।

सिद्धः तर्हि सर्वाश्रमिणां ज्ञानकर्मणोः समुच्चयः।

न, मुमुक्षोः सर्वकर्मसन्न्यासविधानात्।

उ.- यह भी विरुद्ध है; क्योंकि ‘गृहस्थ के लिए ही केवल स्मार्त कर्म के साथ मिले हुए ज्ञान से मोक्ष का प्रतिषेध किया है, दूसरे आश्रम वालों के लिए नहीं’- यह विचारवान् मनुष्य कैसे मान सकते हैं?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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