श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य पृ. 112

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य

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द्वितीय अध्याय

क्योंकि ऐसा है इसलिए-

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।71।।

विहाय परित्यज्य कामान् यः सन्न्यासी पुमान् सर्वान् अशेषतः कार्त्स्न्येन चरति जीवनमात्रचेष्टाशेषः पर्यटति इत्यर्थः।

निःस्पृहः शरीरजीवनमात्रे अपि निर्गता स्पृहा यस्य स निःस्पृहः सन्।

जो सन्यासी पुरुष, संपुर्ण कामनाओं को और भोगों को अशेषतः त्यागकर अर्थात् केवल जीवनमात्र के निमित्त ही चेष्टा करने वाला होकर विचरता है।

तथा जो स्पृहा से रहित हुआ है, अर्थात् शरीर जीवनमात्र में भी जिसकी लालसा नहीं है।

निर्ममः शरीरजीवनमात्राक्षिप्तपरिग्रहे अपि मम इदम् इति अभिनिवेशवर्जितः

निरहंकारो विद्यावत्वादिनिमित्तात्मसम्भावनारहित इत्यर्थः।

एवम्भूतः स्थितप्रज्ञो ब्रह्मवित् शान्तिं सर्वसंसारदुःखोपरमलक्षणां निर्वाणाख्याम् अधिगच्छति प्राप्नोति ब्रह्मभूतो भवति इत्यर्थः।।71।।

सा एषा ज्ञाननिष्ठा स्तूयते- ममता से रहित है अर्थात् शरीर जीवनमात्र के लिए आवश्यक पदार्थों के संग्रह में भी ‘यह मेरा है’ ऐसे भाव से रहित है।

तथा अहंकार से रहित है अर्थात् विद्वत्ता आदि के संबंध से होने वाले आत्माभिमान से भी रहित है।

वह ऐसा स्थितप्रज्ञ, ब्रह्मवेत्ता- ज्ञानी संसार के सर्वदुःखों की निवृत्तिरूप मोक्ष नामक परम शान्ति को पाता है अर्थात् ब्रह्मरूप हो जाता है।।71।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. प्रथम अध्याय 16
2. द्वितीय अध्याय 26
3. तृतीय अध्याय 114
4. चतुर्थ अध्याय 162
5. पंचम अध्याय 216
6. षष्ठम अध्याय 254
7. सप्तम अध्याय 297
8. अष्टम अध्याय 318
9. नवम अध्याय 339
10. दशम अध्याय 364
11. एकादश अध्याय 387
12. द्वादश अध्याय 420
13. त्रयोदश अध्याय 437
14. चतुर्दश अध्याय 516
15. पंचदश अध्याय 536
16. षोडश अध्याय 557
17. सप्तदश अध्याय 574
18. अष्टादश अध्याय 591
अंतिम पृष्ठ 699

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