विषम बिछुडऩे की बेलामें राधा हुई उदास।
अश्रुधार बह चली दृगोंसे, चला दीर्घ निःश्वास॥
बोली करती करुणा-क्रन्दन-’मेरे प्राणाधार !।
निराधार ये प्राण रहेंगे कैसे, क्यों, निस्सार ?’॥
बदला भाव तुरंत, न जाने क्यों पलभर में अन्य।
बोली-’हम दोनों स्वरूपतः अविरत नित्य अनन्य॥
रहे कहीं भी देह छूटता नहीं कभी भी सङ्ग।
नित्य मिले रहते जीवन के सकल अङ्ग-प्रत्यङ्ग॥
हो पाता न कभी हम दोनों का यथार्थ विच्छेद।
कर सकते न कभी, कैसे भी, देश-काल-तन भेद॥
बने तुहारे देह-प्राण-मन चरणयुगल मम प्राण !
हुआ तुम्हारे ही प्राणोंसे मेरा सब निर्माण॥
नित्य बसे रहते तुम मुझमें सहज मधुर आवास।
तुममें सहज हो रहा मेरा मीठा नित्य निवास॥
नित्य मिलनमें भी जब आती कभी विरहकी बात।
सुनते ही जल उठते सारे तत्क्षण मेरे गात’॥
इतना कहते ही आकुल हो हुई पुनः बेहाल।
तन-मनमें सर्वत्र जल उठी ज्वाला कठिन कराल॥