श्रीकृष्ण के प्रेमोद्गार-श्रीराधा के प्रति(राग वागेश्र-तीन ताल)हे प्राणप्यारे! तुम सौन्दर्य रूप सुधा की अनन्त निधि हो, तुममें सब प्रकार का अनन्त माधुर्य भरा है। तुम ऐश्वर्य के भी अनन्त महासागर हो और तुम्हारे भीतर सब प्रकार की पवित्र शूरवीरता भी अनन्त रूप में भरी है ॥ 1॥ सम्पूर्ण दिव्य श्रेष्ठ गुणों के अनन्त सागर रूप में तुम सब दिशाओं में लहराया करते हो। तुम सम्पूर्ण अलौकिक रसों की अनुपम निधि हो एवं पूर्ण रसिक हो और अनन्त रस रूप हो ॥ 2॥ इस प्रकार जो सम्पूर्ण गुणों में तथा रस में परिमाणरहित, सीमारहित और अपार हो, उसको किसी गुण अथवा रस की किसी प्रकार से तनिक भी अपेक्षा- चाह अथवा प्रयोजन नहीं हो सकता ॥ 3॥ इसके विपरीत, मैं तो सब प्रकार से गुणहीन, सब तरह से बेढंगी एवं गँवारिन हूँ। सुन्दरता, मधुरता का मुझमें नाम-निशान भी नहीं। इतना ही नहीं, मैं कठोर स्वभाव की, अत्यन्त कुरूपा और दोषों की घर हूँ ॥ 4॥ मेरे पास ऐसी कोई वस्तु नहीं, जिससे मैं तुमसे रस- आनन्द दे सकूँ, जिससे मैं तुमको रिझा सकूँ, जिससे मैं तुम्हारी पूजा कर सकूँ, तुम्हारा सम्मान कर सकूँ ॥ 5॥ हाँ, एक ऐसी तुच्छ, परंतु अत्यन्त गौरव की वस्तु मेरे पास अवश्य है, जो किसी दूसरे के पास नहीं, जिसका अन्त नहीं हो सकता और जिसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता। वह यह है कि ‘तुम मुझको सदा प्यारे लगते हो’ ॥ 6॥ इसी एक वस्तु पर तुम रीझ गये और तुमने मुझको अंगीकार कर लिया। इसी पर तुमने स्वयं पधारकर अपने-आपको मुझे दे दिया, कुछ भी सोच-विचार नहीं किया ॥ 7॥ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
सम्बंधित लेख
क्रम संख्या | अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज