रहते घुले-मिले ही तुम नित -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्रीराधा के प्रेमोद्गार-श्रीकृष्ण के प्रति

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राग गौरी - ताल कहरवा


रहते घुले-मिले ही तुम नित, कभी न होते विलग, सुजान!
मेरे निकट सदा रहने में पाते तुम सुख मधुर महान॥
मुझको भी कैसा सुख होता परम विलक्षण मधु रस-खान।
अनुभव की वह वस्तु अनोखी, कर सकती मैं नहीं बखान॥
मिली हु‌ई मैं तुमसे ही नित करती सभी देह के काम।
यथायोग्य जो जहाँ उचित, पर रहती संग-रहित, निष्काम॥
नित रस-पान कराती-करती, निरख-निरख विधु-मुख अभिराम।
रहती परम प्रसन्न, सुखी हर स्थिति में बन तव रूप ललाम॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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