मीराँबाई की पदावली पृ. 5

मीराँबाई की पदावली

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मीराँबाई का जीवन-वृत

मीराँबाई ने जान पड़ता है, कुछ इन जैसी घटनाओं के प्रभाव का ही उल्लेख अपने पदों में प्रयुक्त बाल सनेही [1]वा बालपनों की प्रीत [2] आदि द्वारा किया है, मीराँबाई के एक पद [3] में, इसी प्रकार, किसी स्वप्न के ब्याह की भी चर्चा है। परन्तु मीराँबाई की माता उन्हें छोड़कर बालयावस्था (कदाचित उनकी 4-5 वर्ष की आयु) में ही चल बसीं और उनके पितामह राव दूदाजी स्नेहवश उन्हें कूड़की से बुलाकर अपने यहाँ मेड़ता में रखने लगे। मेड़ते में राव सूचना-महिला मृदुवारगी[4]में मुं0 देवीप्रसाद जी ने इस गाँव का नाम चोकड़ी दिया है। दुदाजी के साथ उस समय उनके बड़े लड़के वीरमदेव जी [5] का एक पुत्र जयमल भी रहा करता था। अतएव दोनों का लालन-पालन अपने पितामह की देख-भाल में एक ही साथ हुआ; दोनों ने उनके साथ रह कर अपनी प्राथमिक शिक्षा पायी और दोनों के कोमल हदृयों पर उनके सच्चे धार्मिक जीवन का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। उनकी संगति में रहने के कारण, छोटी-सी अवस्था से ही मीराँ के हदृयक्षेत्र में पड़ा हुआ, भगवद्धक्ति का बीज मानों अंकुरित होकर पल्लवित होने लगा। तत्पश्चात राव दुदाजी का देहान्त हो जाने पर भी जब वीरमदेव जी उनकी गद्दी पर बैठे उस समय, रत्नसिंह को, बहुधा लड़ाइयों में भाग लेते रहने के कारण, दूसरी बातों की ओर ध्यान देने के लिए कम अवकाश मिला करता था। अतएव मीराँ विषयक सारा आवश्यक प्रबन्ध अब से राव वरमदेव जी की ही देख-रेख में चलने लगा। राव वीरदेव जी ने मीराँ का विवाह मेवाड़ के प्रसिद्ध महाराणा साँगा[6] के ज्येष्ठ पुत्र कुँवर भोजराज के साथ निश्चित किया और विवाह-विधि संवत् [7]में आनन्द-पुर्वक सम्पन्न हो गयी। मीराँ मेड़तें से अपनी ससुराल मेवाड़ आकर, प्रथानुसार महल में मेड़तणी कहला कर प्रसिद्ध हो चली और उनका वैवाहिक जीवन भी अपने पति के साथ सुखपुर्वक व्यतीत होने लगा। परन्तु कुँवर भोजराज अधिक दिनों तक जीवित न रह सके और संयोगवश उनका देहांन्त, किसी समय अपने पिता के जीवन-काल में ही [8] हो गया। मीराँबाई इस प्रकार अपने पति के सुख से अल्पकाल में ही वंचित हो गयी और युवावस्था में प्राप्त इस दुखमय वैधव्य के कारण उनके जीवन में एक बहुत बड़े परिवर्तन का अवसर आ उपस्थित हुआ। परन्तु मीरा उसके लिए जैसे पहले से ही तैयार बैठी थी। कहा जाता है कि विवाह के अनन्तर ससुराल आते समय, वे अपने साथ की गिरधरलाल की मुर्ति भी लेती आयी थी और कुंवर भोजराज की जीवितावस्था में भी, उसका विधिवत् पूजन व अर्चन करती रही थी। पतिदेव का वियोग होते ही उन्होंने सारे लौकिक सम्बन्धों के बन्धन सहसा छिन्न-भिन्न कर दिये और चारों ओर से चित्त हटाकर अपने इष्टदेव के प्रति वे और भी अनुरक्त हो गयी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (पद 29)
  2. (पद 100),
  3. (पद 27)
  4. (पृ0 59)
  5. (सं0 1534-1602 वि0=सन् 1477-1455 ई0)
  6. (सं0 1539-1584 वि0=सन् 1482-1528 ई0)
  7. 1573 वि0=सन् 1516 ई0
  8. (सम्भवत सं0 1575 वि0= सन् 1518 ई0 और सं0 1580 वि0=सन् 1523 ई0 के बीच मे)

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