प्रेम सुधा सागर पृ. 95

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
द्वादश अध्याय

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चौथे ने कहा—‘अरे भाई! यह लम्बी-चौड़ी सड़क तो ठीक अजगर की जीभ-सरीखी मालूम पड़ती है और इन गिरीश्रृंगों के बीच का अन्धकार तो उसके मुँह के भीतरी भाग को भी मात करता है।'

किसी दूसरे ग्वालबाल ने कहा - ‘देखो, देखो! ऐसा जान पड़ता है कि कहीं इधर जंगल में आग लगी है। इसी से यह गरम और तीखी हवा आ रही है। परन्तु अजगर की सांस के साथ इसका क्या ही मेल बैठ गया है और उसी आग में जले हुए प्राणियों की दुर्गन्ध ऐसी जान पड़ती है मानो अजगर के पेट में मरे हुए जीवों के मांस की ही दुर्गन्ध हो।'

तब उन्हीं में से एक ने कहा - ‘यदि हम लोग इसके मुँह में घुस जायँ, तो क्या हमें निगल जायगा? अजी! यह क्या निगलेगा। कहीं ऐसा करने की ढिठाई की तो एक क्षण में यह भी बकासुर के समान नष्ट हो जायगा। हमारा कन्हैया इसको छोड़ेगा थोड़े ही।’ इस प्रकार कहते हुए वे ग्वालबाल बकासुर को मारने वाले श्रीकृष्ण का सुन्दर मुख देखते और ताली पीट-पीटकर हँसते हुए अघासुर के मुँह में घुस गये। उन अनजान बच्चों की आपस में हुई भ्रमपूर्ण बातें सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने सोचा कि ‘अरे, इन्हें तो सच्चा सर्प भी झूठा प्रतीत होता है!’

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण जान गये कि यह राक्षस है। भला, उनसे क्या छिपा रहता? वे तो समस्त प्राणियों के हृदय में ही निवास करते हैं। अब उन्होंने यह निश्चय किया कि अब अपने सखा ग्वालबालों को उसके मुँह में जाने से बचा लें। भगवान इस प्रकार सोच ही रहे थे कि सब-के-सब ग्वालबाल बछड़ों के साथ उस असुर के पेट में चले गये। परन्तु अघासुर ने अभी उन्हें निगला नहीं, इसका कारण था कि अघासुर अपने बकासुर और बहिन पूतना के वध की याद करके इस बात की बाट देख रहा था कि उनको मारने वाले श्रीकृष्ण भी मुँह में आ जायँ, तब सबको एक साथ ही निगल जाऊँ।

भगवान श्रीकृष्ण सबको अभय देने वाले हैं। जब उन्होंने देखा कि ये बेचारे ग्वालबाल - जिनका एकमात्र रक्षक मैं ही हूँ - मेरे हाथ से निकल गये और जैसे कोई तिनका उड़कर आग में गिर पड़े, वैसे ही अपने-आप मृत्यु रूप अघासुर की जठराग्नि के ग्रास बन गये, तब दैव की इस विचित्र लीला पर भगवान को बड़ा विस्मय हुआ उनका हृदय दया से द्रवित हो गया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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