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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
छाछठवाँ अध्याय
उसका यह सारा-का-सारा वेष बनावटी था, मानो कोई अभिनेता रंगमंच पर अभिनय करने के लिये आया हो। उसकी वेष-भूषा अपने समान देखकर भगवान श्रीकृष्ण खिलखिलाकर हँसने लगे। अब शत्रुओं ने भगवान श्रीकृष्ण पर त्रिशूल, गदा, मुद्गर, शक्ति, ऋष्टि, प्रास, तोमर, तलवार, पट्टिश और बाण आदि अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार किया। प्रलय के समय जिस प्रकार आग सभी प्रकार के प्राणियों को जला देती है, वैसे ही भगवान श्रीकृष्ण ने भी गदा, तलवार, चक्र और बाण आदि शस्त्रास्त्रों से पौण्ड्रक तथा काशिराज के हाथी, रथ, घोड़े और पैदल की चतुरंगिणी सेना को तहस-नहस कर दिया। वह रणभूमि भगवान के चक्र से खण्ड-खण्ड हुए रथ, घोड़े, हाथी, मनुष्य, गधे और ऊँटों से पट गयी। उस समय ऐसा मालूम हो रहा था, मानो वह भूतनाथ शंकर की भयंकर क्रीड़ास्थली हो। उसे देख-देखकर शूरवीरों का उत्साह और भी बढ़ रहा था। अब भगवान श्रीकृष्ण ने पौण्ड्रक से कहा- ‘रे पौण्ड्रक! तूने दूत के द्वारा कहलाया था कि मेरे चिह्न अस्त्र-शास्त्रादि छोड़ दो। सो अब मैं उन्हें तुझ पर छोड़ रहा हूँ। तूने झूठ-मुठ मेरा नाम रख लिया है। अतः मूर्ख! अब मैं तुझसे उन नामों को भी छुड़ाकर रहूँगा। रही तेरे शरण में आने की बात; सो यदि मैं तुझसे युद्ध न कर सकूँगा तो तेरी शरण ग्रहण करूँगा’। भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार पौण्ड्रक का तिरस्कार करके अपने तीखे बाणों से उसके रथ को तोड़-फोड़ डाला और चक्र से उसका सिर वैसे ही उतार लिया, जैसे इन्द्र ने अपने वज्र से पहाड़ की चोटियों को उड़ा दिया था। इसी प्रकार भगवान ने अपने बाणों से काशिनरेश का सिर भी धड़ से ऊपर उड़ाकर काशीपुरी में गिरा दिया, जैसे वायु कमल का पुष्प गिरा देती है। इस प्रकार अपने साथ डाह रखने वाले पौण्ड्रक को और उसके सखा काशिनरेश को मारकर भगवान श्रीकृष्ण अपनी राजधानी द्वारका में लौट आये। उह समय सिद्धगण भगवान की अमृतमयी कथा का गान कर रहे थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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