प्रेम सुधा सागर पृ. 389

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
सत्तावनवाँ अध्याय

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परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई अपने उस रथ पर सवार हुए, जिस पर गरुड़ चिह्न से चिह्नित ध्वजा फहरा रही थी और बड़े वेग वाले घोड़े जुते हुए थे। अब उन्होंने अपने श्वसुर सत्राजित् को मारने वाले शतधन्वा का पीछा किया। मिथिलापुरी के निकट एक उपवन में शतधन्वा का घोडा गिर पड़ा, अब वह उसे छोड़कर पैदल ही भागा। वह अत्यन्त भयभीत हो गया था। भगवान श्रीकृष्ण भी क्रोध करके उसके पीछे दौड़े। शतधन्वा पैदल ही भाग रहा था, इसलिये भगवान ने भी पैदल ही दौड़कर अपने तीक्ष्ण धार वाले चक्र से उसका सिर उतार लिया और उसके वस्त्रों में स्यमन्तकमणि को ढूँढा। परन्तु जब मणि नहीं मिली तब भगवान श्रीकृष्ण ने बड़े भाई बलरामजी के पास आकर कहा—‘हमने शतधन्वा को व्यर्थ ही मारा। क्योंकि उसके पास स्यमन्तकमणि तो है ही नहीं’। बलरामजी ने कहा—‘इसमें सन्देह नहीं कि शतधन्वा ने स्यमन्तकमणि को किसी-न-किसी के पास रख दिया है। अब तुम द्वारका जाओ और उसका पता लगाओ।

मैं विदेहराज से मिलना चाहता हूँ; क्योंकि वे मेरे बहुत ही प्रिय मित्र हैं।’ परीक्षित्! यह कहकर यदुवंशशिरोमणि बलरामजी मिथिला नगरी में चले गये। जब मिथिलानरेश ने देखा कि पूजनीय बलरामजी महाराज पधारे हैं, तब उनका हृदय आनन्द से भर गया। उन्होंने झटपट अपने आसन से उठकर अनेक सामग्रियों से उनकी पूजा की। इसके बाद भगवान बलरामजी कई वर्षों तक मिथिलापुरी में ही रहे। महात्मा जनक ने बड़े प्रेम और सम्मान से उन्हें रखा। इसके बाद समय पर धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन ने बलरामजी से गदायुद्ध की शिक्षा ग्रहण की। अपनी प्रिया सत्यभामा का प्रिय कार्य करके भगवान श्रीकृष्ण द्वारका लौट आये और उनको यह समाचार सुना दिया कि शतधन्वा को मार डाला गया, परन्तु स्यमन्तकमणि उसके पास न मिली। इसके बाद उन्होंने भाई-बन्धुओं के साथ अपन श्वशुर सत्राजित की वे सब औध्र्वदैहिक क्रियाएँ करवायीं, जिनसे मृतक प्राणी का परलोक सुधरता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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