प्रेम सुधा सागर पृ. 388

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
सत्तावनवाँ अध्याय

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जब शतधन्वा को यह मालूम हुआ कि भगवान श्रीकृष्ण मुझे मारने का उद्योग कर रहे हैं, तब वह बहुत डर गया और अपने प्राण बचाने के लिये उसने कृतवर्मा से सहायता माँगी। तब कृतवर्मा ने कहा— ‘भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी सर्वशक्तिमान् ईश्वर हैं। मैं उनका सामना नहीं कर सकता। भला, ऐसा कौन है, जो उनके साथ वैर बाँधकर इस लोक और परलोक में सकुशल रह सके ? तुम जानते हो कि कंस उन्हीं से द्वेष करने के कारण राज्यलक्ष्मी को खो बैठा और अपने अनुयायियों के साथ मारा गया। जरासन्ध-जैसे शूरवीर को भी उनके सामने सत्रह बार मैदान में हराकार बिना रथ के ही अपनी राजधानी में लौट जाना पड़ा था’ ।

जब कृतवर्मा ने उसे इस प्रकार टका-सा जवाब दे दिया, तब शतधन्वा ने सहायता के लिए अक्रूरजी से प्रार्थना की। उन्होंने कहा—‘भाई! ऐसा कौन है, जो सर्वशक्तिमान् भगवान का बल-पौरुष जानकर भी उनसे वैर-विरोध ठाने। जो भगवान खेल-खेल में ही इस विश्व की रचना, रक्षा और संहार करते हैं तथा जो कब क्या करना चाहते हैं—इस बात को माया से मोहित ब्रह्मा आदि विश्वविधाता भी नहीं समझ पाते; जिन्होंने सात वर्ष की अवस्था में—जब वे निरे बालक थे, एक हाथ से ही गिरिराज गोवर्धन को उखाड़ लिया और जैसे नन्हे-नन्हे बच्चे बरसाती छत्ते को उखाड़कर हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही खेल-खेल में सात दिनों तक उसे उठाये रखा; मैं तो उन भगवान श्रीकृष्ण को नमस्कार करता हूँ। उनके कर्म अद्भुत हैं। वे अनन्त, अनादि, एकरस और आत्मस्वरूप हैं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ’। जब इस प्रकार अक्रूरजी ने भी उसे कोरा जवाब दे दिया, तब शतधन्वा ने स्यमन्तकमणि उन्हीं के पास रख दी और आप चार सौ कोस लगातार चलने वाले घोड़े पर सवार होकर वहाँ से बड़ी फुर्ती से भागा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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