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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
चौवालीसवाँ अध्याय
सखी! व्रज की गोपियाँ धन्य हैं। निरन्तर श्रीकृष्ण में ही चित्त लगा रहने के कारण प्रेमभरे हृदय से, आँसुओं के कारण गद्गद कण्ठ से वे इन्हीं की लीलाओं का गान करती रहती हैं। वे दूध दुहते, दही मथते, धान कूटते, घर लीपते, बालकों को झुला झुलाते, रोते हुए बालकों को चुप कराते, उन्हें नहलाते-धुलाते, घरों को झाड़ते-बुहारते - कहाँ तक कहें, सारे काम-काज करते समय श्रीकृष्ण के गुणों के गान में ही मस्त रहती हैं। ये श्रीकृष्ण जब प्रातःकाल गौओं को चराने के लिये व्रज से वन में जाते हैं और सायंकाल उन्हें लेकर व्रज में लौटते हैं, तब बड़े मधुर स्वर से बाँसुरी बजाते हैं। उसकी टेर सुनकर गोपियाँ घर का सारा कामकाज छोड़कर झटपट रास्ते में दौड़ आती हैं और श्रीकृष्ण का मन्द-मन्द मुस्कान एवं दयाभरी चितवन से युक्त मुखकमल निहार-निहारकर निहाल होती हैं। सचमुच गोपियाँ ही परम पुण्यवती हैं।' भरतवंश शिरोमणे! जिस समय पुरवासिनी स्त्रियाँ इस प्रकार बातें कर रही थीं, उसी समय योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने मन-ही-मन शत्रु को मार डालने का निश्चय किया। स्त्रियों की ये भयपूर्ण बातें माता-पिता देवकी-वसुदेव भी सुन रहे थे।[1] वे पुत्र स्नेहवश शोक से विह्वल हो गये। उनके हृदय में बड़ी जलन, बड़ी पीड़ा होने लगी। क्योंकि वे अपने पुत्रों के बल-वीर्य को नहीं जानते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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