प्रेम सुधा सागर पृ. 265

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
उनतालीसवाँ अध्याय

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परीक्षित! इधर भगवान श्रीकृष्ण भी बलराम जी और अक्रूर जी के साथ वायु के समान वेग वाले रथ पर सवार होकर पापनाशिनी यमुना जी के किनारे जा पहुँचे। वहाँ उन लोगों ने हाथ-मुँह धोकर यमुना जी का मरकत मणि के समान नीला और अमृत के समान मीठा जल पिया। इसके बाद बलराम जी के साथ भगवान वृक्षों के झुरमुट के खड़े रथ पर सवार हो गये। अक्रूर जी ने दोनों भाइयों को रथ पर बैठाकर उनसे आज्ञा ली और यमुना जी के कुण्ड[1] पर आकर वे विधिपूर्वक स्नान करने लगे।

उस कुण्ड में स्नान करने के बाद वे जल में डुबकी लगाकर गायत्री का जप करने लगे। उसी समय जल के भीतर अक्रूर जी ने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई एक साथ ही बैठे हुए हैं। अब उनके मन में वे शंका हुई कि ‘वसुदेव जी के पुत्रों को तो मैं रथ पर बैठा आया हूँ, अब वे यहाँ जल में कैसे आ गये? जब यहाँ हैं तो शायद रथ पर नहीं होंगे।’ ऐसा सोचकर उन्होंने सिर बाहर निकालकर देखा। वे उस रथ पर भी पूर्ववत बैठे हुए थे। उन्होंने यह सोचकर कि मैंने उन्हें जो जल में देखा था, वह भ्रम ही रहा होगा, फिर डुबकी लगायी। परन्तु फिर उन्होंने वहाँ भी देखा कि साक्षात अनन्तदेव श्रीशेष जी विराजमान हैं और सिद्ध, चारण, गन्धर्व एवं असुर अपने-अपने सिर झुकाकर उनकी स्तुति कर रहे हैं।

शेष जी के हज़ार सिर हैं और प्रत्येक फण पर मुकुट सुशोभित है। कमलनाल के समान उज्ज्वल शरीर पर नीलाम्बर धारण किये हुए हैं और उनकी ऐसी शोभा हो रही है, मानो सहस्र शिखरों से युक्त स्वेतगिरि कैलास शोभायमान हो। अक्रूर जी ने देखा कि शेष जी की गोद में श्याम मेघ के समान घनश्याम विराजमान हो रहे हैं। वे रेशमी पीताम्बर पहले हुए हैं। बड़ी ही शान्त चतुर्भुत मूर्ति है और कमल के रक्तदल के समान रतनारे नेत्र हैं। उनका बदन बड़ा ही मनोहर और प्रसन्नता का सदन है। उनका मधुर हास्य और चारु चितवन चित्त को चुराये लेती हैं। भौंहें सुन्दर और नासिका तनिक ऊँची तथा बड़ी ही सुघड़ है। सुन्दर कान, कपोल और लाल-लाल अधरों की छटा निराली ही है। बाँहें घुटनों तक लंबी और हृष्ट-पुष्ट हैं। कंधे ऊंचें और वक्षःस्थल लक्ष्मी जी का आश्रय-स्थान है। शंख के समाण उतार-चढ़ाव वाला सुडौल गला, गहरी नाभि और त्रिवलीयुक्त उदर पीपल पत्ते के समान शोभायमान है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अनन्त-तीर्थ या ब्रह्महृद)

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