प्रेम सुधा सागर पृ. 264

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
उनतालीसवाँ अध्याय

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श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! गोपियाँ वाणी से तो इस प्रकार कह रही थीं; परन्तु उनका एक-एक मनोरथ भगवान श्रीकृष्ण का स्पर्श, उनका आलिंगन कर रहा था। वे विरह की सम्भावना से अत्यन्त व्याकुल हो गयीं और लाज छोड़कर ‘हे गोविन्द! हे दामोदर! हे माधव!’ - इस प्रकार ऊँची आवाज से पुकार-पुकारकर सुललित स्वर से रोने लगीं। गोपियाँ इस प्रकार रो रहीं थीं! रोते-रोते सारी रात बीत गयी, सूर्योदय हुआ। अक्रूर जी सन्ध्या-वन्दन आदि नित्य कर्मों से निवृत्त होकर रथ पर सवार हुए और उसे हाँक ले चले।

नन्दबाबा आदि गोपों ने भी दूध, दही, मक्खन, घी आदि से भरे मटके और भेंट की बहुत-सी सामग्रियाँ ले लीं तथा वे छकड़ों पर चढ़कर उनके पीछे-पीछे चले। इसी समय अनुराग के रंग में रँगी हुई गोपियाँ अपने प्राणप्यारे श्रीकृष्ण के पास गयीं और उनकी चितवन, मुस्कान आदि निरखकर कुछ-कुछ सुखी हुईं। अब वे अपने प्रियतम श्यामसुन्दर से कुछ सन्देश पाने की आकांक्षा से वहीं खड़ी हो गयीं।

यदुवंश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरे मथुरा जाने से गोपियों के हृदय में बड़ी जलन हो रही है, वे सन्तप्त हो रही हैं, तब उन्होंने दूत के द्वारा ‘मैं आऊँगा’ यह प्रेम-सन्देश भेजकर उन्हें धीरज बँधाया। गोपियों को जब तक रथ की ध्वजा और पहियों से उड़ती हुई धूल दीखती रही तब तक उनके शरीर चित्रलिखित-से वहीं ज्यों-के-त्यों खड़े रहे। परन्तु उन्होंने अपना चित्त तो मनमोहन प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण के साथ ही भेज दिया था। अभी उनके मन में आशा थी कि शायद श्रीकृष्ण कुछ दूर जाकर लौट आयें! परन्तु जब नहीं लौटे, तब वे निराश हो गयीं और अपने-अपने घर चली आयीं। परीक्षित! वे रात-दिन अपने प्यारे श्यामसुन्दर की लीलाओं का गान करती रहतीं और इस प्रकार अपने शोकसन्ताप को हल्का करतीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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