प्रेम सुधा सागर पृ. 250

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
अड़तीसवाँ अध्याय

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अक्रुर जी की व्रज-यात्रा

शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! महामती अक्रूर जी भी वह रात मथुरापुरी में बिताकर प्रातःकाल होते ही रथ पर सवार हुए और नन्दबाबा के गोकुल की ओर चल दिये। परम भाग्यवान अक्रूर जी व्रज की यात्रा करते समय मार्ग में कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण की परम प्रेममयी भक्ति से परिपूर्ण हो गये। वे इस प्रकार सोचने लगे - ‘मैंने ऐसा कौन-सा शुभ कर्म किया है, ऐसी कौन-सी श्रेष्ठ तपस्या की है अथवा किसी सत्पात्र को ऐसा कौन-सा महत्त्वपूर्ण दान दिया है जिसके फलस्वरूप आज मैं भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन करूँगा।

मैं बड़ा विषयी हूँ। ऐसी स्थितियों में, बड़े-बड़े सात्त्विक पुरुष भी जिनके गुणों का ही गान करते रहते हैं, दर्शन नहीं कर पाते - उन भगवान के दर्शन मेरे लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं, ठीक वैसे ही, जैसे शूद्र कुल के बालक के लिये वेदों का कीर्तन। परन्तु नहीं, मुझ अधम को भी भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन होंगे ही। क्योंकि जैसे नदी में बहते हुए तिनके कभी-कभी इस पार से उस पार लग जाते हैं, वैसे ही समय के प्रवाह से भी कहीं कोई इस संसार सागर को पार कर सकता है। अवश्य ही आज मेरे सारे अशुभ नष्ट हो गये। आज मेरा जन्म सफल हो गया। क्योंकि आज मैं भगवान के उन चरणकमलों में साक्षात नमस्कार करूँगा, जो बड़े-बड़े योगी-यतियों के भी केवल ध्यान के ही विषय हैं।

अहो! कंस के भेजने मेरे ऊपर बड़ी ही कृपा की है। उसी कंस के भेजने से मैं इस भूतल पर अवतीर्ण स्वयं भगवान के चरणकमलों के दर्शन पाऊँगा। जिनके नभमण्डल की कान्ति का ध्यान करके पहले युगों के ऋषि-महर्षि इस अज्ञान रूप अपार अन्धकार-राशि को पार कर चुके हैं, स्वयं वही भगवान तो अवतार ग्रहण करके प्रकट हुए हैं। ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि बड़े-बड़े देवता जिन चरणकमलों उपासना करते रहते हैं, स्वयं भगवती लक्ष्मी एक क्षण के लिये भी जिनकी सेवा नहीं छोड़तीं, प्रेमी भक्तों के साथ बड़े-बड़े ज्ञानी थी जिनकी आराधना में संलग्न रहते हैं - भगवान के वे ही चरणकमल गौओं को चराने के लिये ग्वालबालों के साथ वन-वन में विचरते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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