प्रेम सुधा सागर पृ. 125

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
पंचदश अध्याय

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उनके नेत्रों में मधुर चितवन और मुखपर मनोहर मुस्कान थी। वे मधुर-मधुर मुरली बजा रहे थे और साथी ग्वालबाल उनकी ललित कीर्ति का गान कर रहे थे। वंशी की ध्वनि सुनकर बहुत-सी गोपियाँ एक साथ ही ब्रज से बाहर निकल आयीं। उनकी आँखें न जाने कब से श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये तरस रही थीं। गोपियों ने अपने नेत्ररूप भ्रमरों से भगवान के मुखारविन्द का मकरन्द-रस पान करके दिन-भर के विरह की जलन शान्त की और भगवान ने भी उनकी लाजभरी हँसी तथा विनय से युक्त प्रेम भरी तिरछी चितवन का सत्कार स्वीकार करके ब्रज में प्रवेश किया।

उधर यशोदा मैया और रोहिणी जी का हृदय वात्सल्य स्नेह से उमड़ रहा था। उन्होंने श्याम और राम के घर पहुँचते ही उनकी इच्छा के अनुसार तथा समय के अनुरूप पहले से ही सोच-सँजोकर रखी हुई वस्तुएँ उन्हें खिलायीं-पिलायीं और पहनायीं। माताओं ने तेल-उबटन आदि लगाकर स्नान कराया। इससे उनकी दिनभर घूमने-फिरने की मार्ग की थकान दूर हो गयी। फिर उन्होंने सुन्दर वस्त्र पहनाकर दिव्य पुष्पों की माला पहनायी तथा चन्दन लगाया तत्पश्चात् दोनों भाइयों ने माताओं का परोसा हुआ स्वादिष्ट अन्न भोजन किया। उसके बाद बड़े लाड़-प्यार से दुलार-दुलार कर यशोदा और रोहिणी ने उन्हें सुन्दर शैय्या पर सुलाया। श्याम और राम बड़े आराम से सो गये।

भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार वृन्दावन में अनेकों लीलाएँ करते। एक दिन अपने सखा ग्वालबालों के साथ वे यमुना-तट पर गये। राजन! उस दिन बलरामजी उनके साथ नहीं थे। उस समय जेठ-आषाढ़ के घाम से गौएँ और ग्वालबाल अत्यन्त पीड़ित हो रहे थे। प्यास से उनका कण्ठ सूख रहा था। इसलिये उन्होंने यमुना जी का विषैला जल पी लिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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