प्रेम सुधा सागर पृ. 116

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
चतुर्दश अध्याय

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प्रभो! आपके प्रेमी ब्रजवासियों का सम्पूर्ण जीवन आपका ही जीवन है। आप ही उनके जीवन के एकमात्र सर्वस्व हैं। इसलिए उनके चरणों की धूलि मिलना आपके ही चरणों की धूलि मिलना है और आपके चरणों की धूलि को तो श्रुतियाँ भी अनादि काल से अब तक ढूंढ़ ही रही हैं। देवताओं के भी आराध्य देव प्रभो! इन ब्रजवासियों को इनकी सेवा के बदले में आप क्या फल देंगे? सम्पूर्ण फलों के फलस्वरूप! आपसे बढ़कर और कोई फल तो है ही नहीं, यह सोचकर मेरा चित्त मोहित हो रहा है। आप उन्हें अपना स्वरूप भी देकर उऋण नहीं सकते। क्योंकि आपके स्वरूप को तो उस पूतना ने भी अपने सम्बन्धियों - अघासुर, बकासुर आदि के साथ प्राप्त कर लिया, जिसका केवल वेश ही साध्वी स्त्री का था, पर जो हृदय से महान क्रूर थी। फिर, जिन्होंने अपने घर, धन, स्वजन, प्रिय, शरीर, पुत्र, प्राण और मन - सब कुछ आपके ही चरणों में समर्पित कर दिया है, जिनका सब कुछ आपके ही लिये है, उन ब्रजवासियों को भी वही फल देकर आप कैसे उऋण हो सकते हैं।

सच्चिदानन्दस्वरूप श्यामसुन्दर! तभी तक राग-द्वेष आदि चोरों के समान सर्वस्व अपहरण करते रहते हैं, तभी तक घर और उसके सम्बन्धी क़ैद की तरह सम्बन्ध के बन्धनों में बाँध रखते हैं और तभी तक मोह पैर की बेड़ियों की तरह जकड़े रखता है - जब तक जीव आपका नहीं हो जाता। प्रभो! आप विश्व के बखेड़े से सर्वथा रहित हैं, फिर भी अपने शरणागत भक्तजनों को अनन्त आनन्द वितरण करने के लिए पृथ्वी में अवतार लेकर विश्व के समान ही लीला-विलास का विस्तार करते हैं। मेरे स्वामी! बहुत कहने की आवश्यकता नहीं - जो लोग आपकी महिमा जानते हैं, वे जानते रहें; मेरे मन, वाणी और शरीर तो आपकी महिमा जानने में सर्वथा असमर्थ हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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