प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 77

प्रेम सत्संग सुधा माला

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मन में तीव्र लगन, तीव्र चाह, उत्कण्ठा की तीव्र आग है; पर बाहर किससे कहे? साधक समझता है-‘मेरे नाथ! तुम्हें ज्ञात है, तुम्हारे पास साधन है, तुम चाहो तो आ सकते हो, पर मैं चलकर भी तुम्हारे पास नहीं पहुँच सकता। मेरे जीवनधन! अनन्त जीवन की चाह लेकर बैठा हूँ, कृपा की डोरी को स्वयं कृपा करके पकड़ा दो। अंधा हूँ, पथ नहीं जानता। मेरे प्रियतम! जिस पथ से चलना चाहता हूँ, उसमें कोई साथी नहीं। तुम्हारे सिवा अवलम्बन नहीं, एकमात्र तुम्हीं सँभाल सकते हो। सँभाल लो, नाथ! ऐसी प्रार्थना हो, निरन्तर मशीन की तरह नाम मुँह से निकलता रहे तथा मन लीला की तरंगों में डूबता-उतराता रहे-यही करना चाहिये।

आप सायंकाल ज्योनार में बैठे रह सकते हैं, पर मन से अपने को बरसाने के सरोवर पर रख सकते हैं, देख सकते हैं। वहाँ श्रीराधारानी हैं, ललिता हैं, श्रीकृष्ण हैं, मधुर वंशी बज रही है। सब हो सकता है; पर चलना होगा आपको ही, इसकी तैयारी करनी पड़ेगी आपको ही। सारा प्रपंच, सारा व्यवहार इसी के अनुकूल होने पर ही स्वीकार्य है; अन्यथा तुरंत सबकी आहुति देने के लिये सच्ची लगन रखनी पड़ेगी। मित्र रहेंगे, परिवार रहेगा, माँ रहेगी, पुत्र रहेंगे; आपके सिर पर पगड़ी, टोपी, बदन पर कोट भी ऐसा ही रहेगा, पर मन में एक विलक्षण व्याकुलता की आग जलती रहेगी। यह जलन बढ़ती ही चली जायगी। ‘कैसे श्रीकृष्ण-चरणों में न्योछावर हो जाऊँ, क्या करूँ, कैसे करूँ’? एकान्त में बैठकर रो पड़ियेगा। यह होगा उनकी कृपा से ही; पर उसके पहले आप भावना कीजिये, उनकी कृपा अनन्त है। कृपा को ग्रहण करते चले जाइये। ‘प्रेमगली अति साँकरी, तामें द्वै न समाय।’

64-यहाँ आप जो वन, पर्वत, नदी, झरने, स्त्री, पुरुष, हिरन, गाय, पक्षी, महल, सड़क देखते हैं, जो कुछ भी स्त्री-पुरुष में, पिता-पुत्र में, मित्र-मित्र में प्रेम का भाव देखते हैं, इन्हें देखकर उस सच्चिदानन्दमय राज्य की कुछ कल्पना की जाती है। पर वास्तव में वह राज्य नहीं है, ऐसी बात नहीं है। बल्कि उस सच्चिदानन्दमय राज्य की उन-उन चीजों के आधार पर ही ये चीजें भी कल्पित हुई हैं, उसके आधार पर ही चीजें हैं, उस सच्चिदानन्दमय राज्य की छाया-जैसी हैं। समझने-समझाने के लिये कोई दृष्टान्त ही नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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