प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 76

प्रेम सत्संग सुधा माला

Prev.png

है सचेत कहि भले सखा! पठए सुचि ल्यावन ।
अवगुन हमरे आइ तहाँ ते लगे बतावन ॥
मोमें उन में अंतरौ एकौ छिन भरि नाहिं ।
ज्यौं देखौ मो माहिं वे त्यों हौं उनहीं माहिं ॥
तरंगनि वारि ज्यों ।

गोपी रूप दिखाय तबै मोहन बनवारी ।
ऊधौ भ्रमहि निवारि डारि मुख मोह की जारी ॥
अपनो रूप दिखाय पुनि गोपी रूप दुराय ।
‘नंददास’ पावन भये जो यह लीला गाय ॥
प्रेम रस पुंजनी ।

श्रीकृष्ण ही श्रीराधा हैं, श्रीगोपियाँ हैं। श्रीराधा, श्रीगोपियाँ ही श्रीकृष्ण हैं। पर वियोग के बिना प्रेम का विकास नहीं होता— यह दिखाने के लिये जगत् के साधकों को कृतार्थ करने के लिये, प्रेम साधना की पद्धति सिखाने के लिये वियोग का अभिनय मात्र किया गया था।

व्रज में आज भी लीला चलती रहती है, नित्य रसमयी लीला का प्रवाह अनादि काल से चलता आ रहा है, अनन्त काल तक चलता रहेगा। साधक जब उस लीला में प्रवेश करता है, तब पहले कुछ दिन वहाँ नित्य सखियों के संग में रहकर पकाया जाता है। वही हिलग की स्थिति है। इसके बाद जब व्याकुलता चरम सीमा को पहुँच जाती है, तब रास में सर्वप्रथम मिलन होकर— अनन्त काल के लिये स्वयं भी सेवा में अधिकार पाकर निहाल हो जाता है यह एक साधारण नियम है। यों तो कृष्ण जो चाहें, वही नियम साधक के लिये बन जायगा। प्रेम में त्याग-ही-त्याग है। जिसके जीवन में एकमात्र श्रीकृष्ण ही साध्य-साधन हैं, उसी के लिये यह पथ है, दूसरे के लिये इसकी गुंजाइश नहीं है। पतिव्रता की तरह उसे बाट देखनी पड़ती है कि पति का संदेशा लेकर कौन आता है, स्वयं चलकर दूत की तलाश में पतिव्रता नहीं जाती। स्वामी का दूत ही पतिव्रता के पास आता है। उसी प्रकार साधक श्रीकृष्ण का नाम लेकर निरन्तर आँसू बहाता रहता है और श्रीकृष्ण की ओर से समयोचित— अधिकारोचित चेष्टा होती है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः