प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 75

प्रेम सत्संग सुधा माला

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63- श्रीकृष्ण श्रीगोपिजनों से कुरुक्षेत्र में मिलने पर कहते हैं- ‘गोपियों! तुमने हमें कृतघ्न समझा होगा; क्या करें’ कामकाज की भीड़ में लग गये। देखो, ईश्वर ही प्राणियों का संयोग करता है और वही पूनः वियोग कराता है।.....सौभाग्य की बात है कि ‘हमारे प्रति तुम लोगों का प्रेम निश्चल रहा।’ बस, यह प्रेम ही सचमुच सार है। इस प्रकार का श्रीमद्भागवत् में वर्णित है। पर वास्तव में श्रीकृष्ण गोपीजनों से हटकर भी नहीं हटे थे, श्रीकृष्ण हटते ही नहीं। उद्धवजी के ज्ञान का गर्व शान्त होने पर जब वे श्रीकृष्ण के पास लौटे हैं, उस समय का बड़ा ही सुन्दर वर्णन नन्ददासजी ने किया है-

गोपी गुन गावन लग्यौ मोहन गुन गयौ भूलि ।

करुणामयी रसिकता है तुम्हरी सब झूठी ।
जब ही लौं नहिं लख्यौ तबहि लौं बाँधी मूठी ॥
मैं जान्यौ ब्रज जाय कै तुम्हरौ निर्दय रूप ।
जे तुम कौं अवलंबहों तिन कौं भेलौ कूप ॥
कौन यह धर्म है।

पुनि पुनि कहै अहो स्याम! जाय वृंदावन रहिये ।
परम प्रेम कौ पुंज जहाँ गोपिन सँग लहिये ॥
और काम सब छाँड़ि कै उन लोगन सुख देहु ।
नातरु टूट्यौ जात है अबहीं नेहु सनेहु ॥
करौगे फिरि कहा ।

सुनत सखा के बैन नैन भरि आए दोऊ ।
बिबस प्रेम आबेस रही नाहीं सुधि कोऊ ॥
रोम रोम प्रति गोपिका ह्वै रहिं साँवर गात ।
कल्पतरोरुह साँवरौ ब्रजबनिता भईं पात ॥
उलहि अँग-अँग ते ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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