प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 78

प्रेम सत्संग सुधा माला

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एक दिन सोच रहा था कैसे समझा’ऊँ? पास में कमण्डलु पड़ा था, सूर्य की किरणों में उसकी छाया पड़ रही थी। मैंने कमण्डलु को घुमाना शुरू किया। विचित्र-सी छाया बनती गयी। उस छाया को देखकर कभी तो यह अनुमान हो सकता था कि कमण्डलु इस छाया का आधार है; पर कभी-कभी तो यह पता ही नहीं लग सकता था कि ऐसी छाया का आधार भी कमण्डलु हो सकता है। कुछ ऐसे ही यहाँ भी समझ सकते हैं। यहाँ जो कुछ दीख रहा है- पहाड़, नदी, वन, सूर्य, चन्द्र, गाय, सरोवर, बर्तन, साड़ी, डंडा, स्त्री-पुरुष का ढाँचा, आपस में प्रेम का व्यवहार- सब-की-सब चीजें उस सच्चिदानन्दमय राज्य की नकल हैं। इन सबका आधार वह सच्चिदानन्दमय राज्य ही है। पर वह दिव्य राज्य त्रिगुणात्मक माया के आवरण के अन्तराल से प्रतिभाषित होकर विकृत हो जाता है। जहाँ आपको ये चीजें दीखती हैं, वहीं पर महान् अनिर्वचनीय दिव्य सच्चिदानन्दमय वृन्दावन है। पर अभी तो उसकी कल्पना सर्वथा असम्भव है। हाँ, इनको न देखकर इसके आधार पर दृष्टि डालते ही मन टिकाते ही, इस भ्रान्तिमय छाया-स्वरुप राज्य की निवृत्ति हो जायगी; फिर वह चीज देखने को मिलेगी, जो सर्वथा सब ओर से विकारहीन सच्चिदानन्दमय है।

सच्चे वेदान्ती तो साधना करके सत्ता स्वरुप सच्चिदानन्दमय राज्य में विलीन हो जाते हैं। पर जो लड़ने-झगड़ने वाले हैं, उन्हें यह समझना ही कठिन है कि ऐसी भ्रान्ति इस रूप में क्यों होती है। उनकी बुद्धि यह समझ ही नहीं सकती कि ठीक इस भ्रान्ति के अन्तराल में कुछ-न-कुछ ऐसी ही, ज्यों-की-त्यों चीज है, जिसके कारण यह भ्रान्ति है।

यहाँ आप पदों में सुनते हैं- श्रीकृष्ण गोपियों को छेड़ते हैं, किसी का हाथ पकड़ लेते हैं। अब ये चेष्टाएँ यद्यपि हैं ठीक ऐसी ही, पर ऐसी होकर भी ये लौकिक नहीं, परम दिव्य है, सर्वथा चित्-आनन्द से सब ओर से ओत-प्रोत हैं। उन्हें बुद्धि से समझा ही नहीं जा सकता। उनका तो कोई बिरले भाग्यवान् महात्मा ही अनुभव करते हैं। अनुभव के पहले तो इन लीला-प्रसंगों में यहाँ की विकारमयी चीजों के विकारमय भावों का ही अधिकांश आरोप हो जाता है। महात्मा लोग ऐसी लीला को चीनी के तूँबे से उपमा देते हैं। चीनी का बनाया हुआ तूँबा देखकर कोई भी समझ नहीं सकता कि यह कड़वे तूँबे के अतिरिक्त कोई और चीज है। वह उसकी कटुता की ही कल्पना सर्वथा करता है। ऐसी ही उस लीला की अत्यन्त माधुर्यमयी, सच्चिदानन्दमयी बातें भी अनधिकारियों के द्वारा विकृत हो जाती हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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