प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 115

प्रेम सत्संग सुधा माला

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व्रज के एक बहुत पहुँचे हुए महात्मा हुए हैं- श्रीललितकिशोरीजी, उन्हीं का यह पद है। ऐसी ही निष्ठा आगे चलकर रसिक भक्तों की हो जाती है। पद का भाव यह है- यदि श्रीप्रियाजी के कुंज में बसने का- वृन्दावन में बसने का सौभाग्य मिल गया तो फिर दूसरे तीर्थों में गये अथवा न गये। जाना, नहीं जाना बराबर है। समस्त साधना का फल तो व्रजवास के रूप में मिल गया। अब और तीर्थों में जाकर क्या होगा। दूसरी बात यह कि जब प्रिया-प्रियतम, लाड़िली-लाल का नाम मुँह से निकल गया, तब फिर दूसरे नाम, दूसरी चर्चा मुँह से निकली या न निकली। आवश्यकता ही कुछ नहीं है। तीसरी बात, जब श्रीप्रियाजी के चरणकमलों में चित्त झुककर उसमें फँस गया- उस रंग में पग गया, तब फिर और किसी के चरणों में सिर नवाया या नहीं नवाया- दोनों बराबर हैं। चौथी बात- जब दृष्टि मनमोहन से लग गयी, नेत्र मोहन से जा लगे, तब फिर दूसरा कोई अवगुण (दोष) हुआ या नहीं हुआ, दोनों बराबर हैं। किसी परपुरुष में दृष्टि लगाना बड़ा अवगुण है, पर जब वही श्रीमनमोहन रूप सुधाचन्द्र में लग जाती है, तब वह परम सद्गुण बन जाता है।

इस प्रकार श्रीकृष्ण प्रेम का भिखारी बस, चार लक्ष्य सामने रखकर बढ़ता है- जगत् की परवा मिटाकर बढ़ता है। कौन क्या कहता है, इसकी ओर उसकी दृष्टि नहीं रहती। वह बिलकुल सर्वथा जगत् की ओर से, समस्त योग्यता की ओर से मुँह मोड़कर रम जाता है। प्रियतम प्रभु के नाम, रूप, लीला, धाम- इन चार चीजों में। अभ्यास के द्वारा जैसे हो, जिस प्रकार हो, बस, एक ही चर्चा, एक ही वातावरण निरन्तर बनाये रखे। लीला सुनने के लिये मिले, सुने- नहीं मिले तो पढ़े, चिन्तन करे। बस, मन उन्हीं बातों में रमता रहे। श्रीगोपी जनों के प्रेम की कैसी दशा होती है, इसे लिखकर तो कोई बता ही नहीं सकता। जैसे बिजली का प्रकाश है; उसे देखकर जिसने कभी सूर्य के निर्मल प्रकाश को नहीं देखा है, वह अनुमान ही नहीं कर सकता कि वह कितना निर्मल प्रकाश है। ठीक उसी प्रकार आप जितनी बातें सुनते हैं, उनको सुनकर वास्तविक श्रीगोपी-प्रेम का क्या रूप है, यह ठीक-ठीक अनुमान ही आपको नहीं हो सकता। वह तो सूर्य की किरणों की तरह अत्यन्त निर्मल प्रकाशमय वस्तु है, ज्ञान के परे की चीज है। उसे तो देखकर उनकी अनन्त कृपा होने पर ही उसका यत्किंचित् स्वरुप समझा जा सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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