गोहनें गुपाल फिरूँ -मीराँबाई

मीराँबाई की पदावली

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राग परज




गोहनें गुपाल फिरूँ, ऐसी आवत मन में।
अवलोकत बारिज बदन, बिबस भई तन में।
मुरली की लकुट लेऊँ, पीत बसन धारूँ।
काछी गोप भेष मुकट, गोधन सँग चारूँ।
हम भई गुलफामलता, वृन्दावन रैनाँ।
पसु पंछी मरकट मुनी, श्रवण सुनत बैनाँ।
गुरुजन कठिन कानि, कासों री कहिए।
मीराँ के प्रभु गिरधर मिलि, ऐसें ही रहिए ।।185।।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गोहनें = संग में, साथ साथ। (देखो - ‘देव जू गोहन लागै फिरैं गहि के गहिरे रंग में गहिराऊ’- देव )। ऐसी आवत = ऐसा आता है। बारिज बदन = कृष्ण का मुख कमल। काछी = बनाकर, धारण कर ( देखो- ‘गौर कियार वेष वर काछे। कर सर बाम राम के पाछे’ - तुलसीदास)। चारूँ = चलूँ, घूमूँ, फिरूँ। गुलफाम = सुन्दर, या खूबसूरत। रैना = धूलों की ( रय = रज, धूल)। हम... वैनां = पशु पक्षी, बंदर, मुनि आदि के शब्द अपने कानों सुनती 2 मैं वृन्दावन की मिट्टी में पैदा हुई संदर लता सी बन गई। कठिन = कठिनाई के साथ निभायी जाने योग्य। कानि = संकोच हो रहा है )। ऐसे... रहिए = इसी प्रकार जीवन बिताना श्रेयस्कर है।

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