गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 28

गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार

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स्वागतं वो महाभागाः प्रियं किं करवाणि वः।
व्रजस्यानामयं कच्चिद् ब्रूतागमनकारणम्।।[1]

‘हे महाभागाओ! तुम्हारा स्वागत है! कहो, मैं तुम्हारा क्या प्रिय कार्य करूँ? व्रज में सब कुशल तो है, इस समय अपने यहाँ आने का कारण तो बताओ? गोपियाँ भगवान् की ऐसी वाणी सुनकर मुसकरा दीं, कुछ बोलीं नहीं। भगवान् फिर बोले-

रजन्येषा घोररूपा घोरसत्त्वनिषेविता।
प्रतियात व्रजं नेह स्थेयं स्त्रीभिः सुमध्यमाः।।[2]

‘हे सुन्दरियो! देखो, रात्रि बड़ी घोर है। इस समय बहुत- से भयानक जीव इधर-उधर फिर रहे हैं। इसलिये तुम लोग तुरंत व्रज को लौट जाओ। यहाँ स्त्रियों का अधिक देर ठहरना ठीक नहीं है।‘ गोपियों ने कुछ उत्तर नहीं दिया। भगवान् फिर बोले-

मतरः पितरः पुत्रा भ्रातरः पतयश्च वः।
विचिन्वन्ति ह्यपश्यन्तो मा कृढ्वं बन्धुसाध्वसम्।।[3]

‘तुम्हें घर में न देखकर तुम्हारे माता-पिता, पुत्र, भाई और पति आदि तुम्हें ढूढ़ँते होंगे। तुम यहाँ ठहरकर अपने घरवालों को व्यर्थ घबराहट में न डाaलो।‘

यहाँ भगवान् ने सांसारिक अति निकट के सम्बन्धियों की बात याद दिलाकर यह जानना चाहा कि देखें गोपियों के मन में उनके प्रति मोह या उनसे भय है या नहीं। ये मायिक जगत् में हैं या ईश्वराविमुखी हैं? परंतु गोपियाँ इस परीक्षा में पास हो गयीं। ऋषि पत्नियाँ यहीं, इसी प्रसंग पर घर लौट गयी थीं। गोपियाँ कुछ नहीं बोलीं। उनके चित्त मे संसार की आत्मीयता का कुछ भी मोह नहीं जाग्रत हुआ वे भगवान् परमात्मा श्रीकृष्ण के प्रेम में डूब रही थीं।

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  1. (श्रीमद्भा0 18।29।28)
  2. '(श्रीमद्भा0 10।29।19)
  3. (श्रीमद्भा0 10।29।20)

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