गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 27

गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार

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‘वंशीका वह पवित्र संगीत अपनी सुधामयी स्वरलहरी से समस्त वृन्दावन को आप्लावित करता हुआ, आकाश में पहुँचकर जलद समूह को स्ताम्भित करता हुआ, स्वर्ग में देवगायक तुम्बुरू को पुनः-पुनः चकित करता हुआ ब्रह्मलोक में सनन्दनादि महामुनियों की निर्गुण ब्रह्म की निर्बीज समाधि को भंग करता हुआ, स्वयं प्रजापति ब्रह्मा को विस्मित करता हुआ; यों ऊध्र्वलोक में अपनी विजय पताका फहराकर नीचे पाताल की ओर चला और वहाँ राजा बलि को चौंकाकर, नागराज अनन्त शेषनाग के सहस्त्र फणों को कँपाकर, अखिल ब्रह्माण्डकटाह को भेदकर श्रीकृष्ण का वह वंशी- संगीत सब ओर फैल गया।‘

परंतु इतने पर भी इस आवाहन-संगीत को सुना भक्तों ने ही और वे उसी समय दौड़ चले। अब भी श्याम की यह वंशी वैसी ही बजती है और प्रेमी भक्त अब भी उसे सुनते हैं। अस्तु! भक्तवर श्रीनन्ददासजी कहते हैं-

सुनत चलीं ब्रज-बधू गीत-धुनि को मारग गहि।
भवन भीत द्रुम कुंज पुंज कितहू अटकी नहि।।
नाद अमृत को पंन्थ रँगीलो सुच्छम भारी।
तेहि मग ब्रज तिय चलैं, आन कोउ नहिं अधिकारी।।

वे मुरली की ध्वनिको लक्ष्य करके उन्मत्त की भाँति चलीं और भगवान् श्रीकृष्ण के चरण-प्रान्तों में जा पहुँचीं। यहाँ फिर प्रेम-परीक्षा होती है। खास करके दो बातें देखती हैं- (1) गोपियों का किसी सांसारिक विषयों में मन आसक्त है या नहीं और (2) वे श्रीकृष्ण को साक्षात् भगवान् समझती हैं या नहीं। इसीलिये पहले-पहल भगवान् ने उनसे कहा-

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