गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
6.कर्म, भक्ति और ज्ञान
भगवान् को समग्र रूप में देखने से समग्र चैतन्ययुक्त आत्मसमर्पण बनता है; बाकी जो कुछ है वह उन चीजों को प्राप्त होता है जो चीजें अपूर्ण और आंशिक हैं और उसे फिर उन चीजों से हटकर महत्तर आत्मानुसंधान और विशालतर परमात्मानुभव से अपने-आपको अधिक विशाल बनाने के लिये लौट आना पड़ता है। परंतु परम पुरुष और विश्वात्मपुरुष को ही केवल और सर्वथा प्राप्त करने का यत्न करना उस समग्र ज्ञान और सुफल को प्राप्त होना है जिसे अन्य मार्ग प्राप्त करते हैं जबकि साधक किसी एक पहलू से ही सीमित हुआ नहीं रहता यद्वपि सब पहलुओं में उन्हीं एक भगवान् की ही सत्ता को अनुभव करता है। इस प्रकार यत्न पुरुषोत्तम की ओर आगे बढ़ता हुआ सभी भगवदीय रूपों का समालिंगन करता है।[1]यह पूर्ण आत्मसमर्पण, यह अनन्य शरणगति ही भक्ति है जिसे गीता ने अपने समन्वय का मुकुट बनाया है सारा कर्म और साधन-प्रयास इस भक्ति के द्वारा उस परमपुरुष विश्वात्मा जगदीश्वर के प्रति समर्पण होता है भगवान् कहते हैं, ‘जो कुछ तुम करते हो, जो कुछ सुख भोगते हो, जो कुछ दान करते हो, जो कुछ मानसा कर्मणा तप करते हो, उसे मुझे अर्पण करो।”[2] यहाँ छोटी-से-छोटी चीज, जीवन की समान्य-से-सामान्य घटना, हम जो कुछ हैं या हमारे पास जो कुछ है उसमें से किंचित् भी जो दान किया हो वह दान छोटे-से-छोटा काम भगवदीय संबंध धारण करता और भगवान् के ग्रहण करने योग्य समर्पण होता है और भगवान् उसे अपने भक्त की जीवसत्ता और जीवन को अधिकृत करने का साधन बना लेते हैं। तब कामकृत और अहंकारकृत के भेद मिट जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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