गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 317

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
6.कर्म, भक्ति और ज्ञान


अपने कर्म का फल अच्छा ही हो इस तहर की कोई विकलता मन को नहीं होती, असुखद परिणाम का कोई तिरस्कार नहीं होता, बल्कि सारा कर्म और फल उन परमेश्वर को अर्पित कर दिया जाता है जिनके कि जगत् के सारे कर्म और फल सदा से हैं ही। इस तरह कर्म करने वाले भक्त को कर्म का कोई बंधन नहीं होता। क्योंकि अनन्य भाव से आत्समर्पण करने से सारी अहंभाव-प्रयुक्त कामना हृदय से निकल जाती है और भगवान् और व्यष्टिजीव के बीच, जीव के पृथक् जीवन के आंतरिक संन्यास के द्वारा पूर्ण एकत्व सिद्ध होता है। संपूर्ण चित्त, संपूर्ण कर्म संपूर्ण फल भगवान् के अपने होते हैं इनका सारा व्यापार दिव्य रूप से विशुद्ध और प्रबुद्ध प्रकृति से होता है, ये सीमित परिच्छिन्न प्रकृति इस प्रकार से समर्पित होन पर अनंत का एक मुक्त द्वार बन जाती है; जीव अपनी आध्यात्मिक सत्ता में, अज्ञान और बंधन से ऊपर निकलकर सनातन पुरुष के साथ अपने एकत्व में लौट आता है। सनातन पुरुष भगवान् का सब भूतों में अधिवास है; सबमें वे सम हैं और सब प्राणियों के समभाव से मित्र, पिता, माता, विधाता, प्रेमी और भर्ता हैं।

वे किसी के शत्रु नहीं, किसीके पक्षपाती प्रेमी नहीं; किसको उन्होंने निकाल बाहर नहीं किया है, किसीको सदा के लिये नीच करार नहीं दिया है, किसीको उन्होंने अपनी स्वेच्छाचारिता से भाग्यवान् नहीं बनाया है, सब अज्ञान में अपने-अपने चक्कर काटकर अंत में उन्हींके पास आते हैं पर भगवान् का यह निवास मुनष्य में और मनुष्य का भगवान् में इस अनन्य भक्ति द्वारा ही स्वानुभूत होता है और यह एकत्व सर्वाांग में तथा पूर्ण रूप से सिद्ध होता है। परम का प्रेम और पूर्ण आत्मसमर्पण, ये ही दो चीजें हैं इस भगवदीय एकत्व का सीधा और तेज मार्ग।[1]हम सबके अंदर समरूप से भगवती सत्ता है वह कोई अन्य प्राथमिक मांग नहीं करती यदि एक बार इस प्रकार से श्रद्धा और हृदय की सच्चाई के साथ तथा मूलतः पूर्णता के साथ संपूर्ण आत्मसमर्पण कर दिया जाये। सब इस द्वार तक पहुँच सकते हैं, सब इस मंदिर के अंदर प्रवेश कर सकते हैं, सर्वप्रेमी के इस प्रसाद में हमारे सारे सांसारिक भेद हवा हो जाते हैं यहाँ पुण्यात्मा का न कोई खास आदर है, न पापातम का तिरस्कार; पवित्रात्मा और शास्त्रविधि का ठीक-ठीक पालन करने वाला सदाचारी ब्राह्मण और पाप और दुःख के गर्भ से उत्पन्न तथा मनुष्य द्वारा तिरस्कृत-बहिष्कृत चाण्डाल दोनों ही एक साथ इस रास्ते पर चल सकते हैं और समान रूप से परा मुक्ति और सनातन के अंदर परम निवास का मुक्त द्वार पा सकते हैं। पुरुष और स्त्री दोनों का ही भगवान के सामने समान अधिकार है; क्योंकि भगवत आत्मा मनुष्य को देख-देखकर या उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा या मर्यादा को सोच-सोचकर उसके अनुसार आदर नहीं देती; सब बिना किसी मध्यवर्ती या बाधक शत्र के सीधे उसके पास जा सकते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 9.26- 29

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