गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
6.कर्म, भक्ति और ज्ञान
वे किसी के शत्रु नहीं, किसीके पक्षपाती प्रेमी नहीं; किसको उन्होंने निकाल बाहर नहीं किया है, किसीको सदा के लिये नीच करार नहीं दिया है, किसीको उन्होंने अपनी स्वेच्छाचारिता से भाग्यवान् नहीं बनाया है, सब अज्ञान में अपने-अपने चक्कर काटकर अंत में उन्हींके पास आते हैं पर भगवान् का यह निवास मुनष्य में और मनुष्य का भगवान् में इस अनन्य भक्ति द्वारा ही स्वानुभूत होता है और यह एकत्व सर्वाांग में तथा पूर्ण रूप से सिद्ध होता है। परम का प्रेम और पूर्ण आत्मसमर्पण, ये ही दो चीजें हैं इस भगवदीय एकत्व का सीधा और तेज मार्ग।[1]हम सबके अंदर समरूप से भगवती सत्ता है वह कोई अन्य प्राथमिक मांग नहीं करती यदि एक बार इस प्रकार से श्रद्धा और हृदय की सच्चाई के साथ तथा मूलतः पूर्णता के साथ संपूर्ण आत्मसमर्पण कर दिया जाये। सब इस द्वार तक पहुँच सकते हैं, सब इस मंदिर के अंदर प्रवेश कर सकते हैं, सर्वप्रेमी के इस प्रसाद में हमारे सारे सांसारिक भेद हवा हो जाते हैं यहाँ पुण्यात्मा का न कोई खास आदर है, न पापातम का तिरस्कार; पवित्रात्मा और शास्त्रविधि का ठीक-ठीक पालन करने वाला सदाचारी ब्राह्मण और पाप और दुःख के गर्भ से उत्पन्न तथा मनुष्य द्वारा तिरस्कृत-बहिष्कृत चाण्डाल दोनों ही एक साथ इस रास्ते पर चल सकते हैं और समान रूप से परा मुक्ति और सनातन के अंदर परम निवास का मुक्त द्वार पा सकते हैं। पुरुष और स्त्री दोनों का ही भगवान के सामने समान अधिकार है; क्योंकि भगवत आत्मा मनुष्य को देख-देखकर या उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा या मर्यादा को सोच-सोचकर उसके अनुसार आदर नहीं देती; सब बिना किसी मध्यवर्ती या बाधक शत्र के सीधे उसके पास जा सकते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 9.26- 29
संबंधित लेख
-
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज