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− | ऐसा कर्म जप है, जप में जीभ से मन्त्र का उच्चारण होता है, हाथ में माला घूमती है, पहले मन से सांसारिक वस्तुओं का चिन्तन होने पर भी अन्त में अन्त:करण की ही स्मृति रहने लगती है। इससे अन्त:करण जाग्रत हो जाता है और परमात्मा के ध्यान में लगने लगता है। जप होना चाहिये, चाहे गायत्री का हो, चाहे प्रणव का हो, चाहे भगवान् के और किसी नाम का हो। अन्तर्मुख होना ही जप की सफलता का लक्षण है। जो जप करके भी अन्तर्मुख नहीं होता, उसके मन में आध्यात्मिक जिज्ञासा का अभाव है, अथवा श्रद्धा का अभाव है, ऐसा समझना चाहिये। | + | ऐसा कर्म जप है, जप में जीभ से मन्त्र का उच्चारण होता है, हाथ में माला घूमती है, पहले मन से सांसारिक वस्तुओं का चिन्तन होने पर भी अन्त में अन्त:करण की ही स्मृति रहने लगती है। इससे अन्त:करण जाग्रत हो जाता है और [[परमात्मा]] के ध्यान में लगने लगता है। जप होना चाहिये, चाहे गायत्री का हो, चाहे प्रणव का हो, चाहे भगवान् के और किसी नाम का हो। अन्तर्मुख होना ही जप की सफलता का लक्षण है। जो जप करके भी अन्तर्मुख नहीं होता, उसके मन में आध्यात्मिक जिज्ञासा का अभाव है, अथवा श्रद्धा का अभाव है, ऐसा समझना चाहिये। |
− | युधिष्ठिर! तुमसे क्या बताऊँ, तुम तो सब जानते ही हो। लोक-कल्याण के लिये मुझसे प्रश्न करते हो तो करो और मैं उत्तर भी दूँ। असली बात यह है कि संसार में जितने प्रकार के धर्म हैं, वे सब श्रीकृष्ण से ही निकले हैं। श्रीकृष्ण ही सब धर्मों के उत्पत्ति स्थान हैं। जीवन्मुक्ति और स्वरुपस्थिति श्रीकृष्ण की कृपा की प्रतीक्षा करती है। श्रीकृष्ण ही निर्गुण ब्रह्म हैं; श्रीकृष्ण ही सगुण ब्रह्म हैं। श्रीकृष्ण ही साकार हैं, श्रीकृष्ण ही निराकार हैं। श्रीकृष्ण प्रकृति हैं और श्रीकृष्ण ही विकृति हैं। श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है। श्रीकृष्ण माता-पिता, भाई-बन्धु, सुह्द्-सखा, पति-पुत्र- सब कुछ हैं। वे पुरुष हैं, वे पुरुषोत्तम हैं। वे जीव हैं, वे ब्रह्म हैं। श्रीकृष्ण ही ज्ञाता हैं, श्रीकृष्ण ही ज्ञेय हैं। श्रीकृष्ण ही ज्ञान हैं, श्रीकृष्ण ही ब्रह्म और श्रीकृष्ण ही जीव हैं। तुम जिन्हें अपने मामा का लड़का समझते हो, वह तुम्हारे मन्त्री रहे, तुम्हारे दूत रहे, तुम्हारे सखा रहे; जिन्होंने यज्ञ में तुम्हारे अतिथियों के चरण धोने का काम किया, जिन्होंने युद्ध में अर्जुन का सारथ्य किया, जिन्होंने अर्जुन के लिये अपने वक्ष:स्थल पर मेरे तीखे बाण सहे; वे श्रीकृष्ण ही परमात्मा हैं। उन्हीं का ध्यान, उन्हीं का स्मरण, उन्हीं का चिन्तन, उन्हीं का जप, उन्हीं का कीर्तन, उन्हीं का आश्रय, उन्हीं की शरण, उन्हीं का भजन, उन्हीं का सेवन, भैया! बस, सही परमार्थ है, यही स्वार्थ है, यही सब कुछ है। यही उपदेश है, यही आदेश है। यही सब आदेशों और उपदेशों का सार है। इससे बढ़कर और कुछ नहीं है। तुम और सब लोग इनकी ही उपासना करें, श्रीकृष्ण की ही उपासना करें। बस, हमें और कुछ नहीं कहना है। | + | [[युधिष्ठिर]]! तुमसे क्या बताऊँ, तुम तो सब जानते ही हो। लोक-कल्याण के लिये मुझसे प्रश्न करते हो तो करो और मैं उत्तर भी दूँ। असली बात यह है कि संसार में जितने प्रकार के धर्म हैं, वे सब [[श्रीकृष्ण]] से ही निकले हैं। श्रीकृष्ण ही सब धर्मों के उत्पत्ति स्थान हैं। जीवन्मुक्ति और स्वरुपस्थिति श्रीकृष्ण की कृपा की प्रतीक्षा करती है। श्रीकृष्ण ही निर्गुण ब्रह्म हैं; श्रीकृष्ण ही सगुण ब्रह्म हैं। श्रीकृष्ण ही साकार हैं, श्रीकृष्ण ही निराकार हैं। श्रीकृष्ण प्रकृति हैं और [[श्रीकृष्ण]] ही विकृति हैं। श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है। श्रीकृष्ण माता-पिता, भाई-बन्धु, सुह्द्-सखा, पति-पुत्र- सब कुछ हैं। वे पुरुष हैं, वे पुरुषोत्तम हैं। वे जीव हैं, वे ब्रह्म हैं। श्रीकृष्ण ही ज्ञाता हैं, श्रीकृष्ण ही ज्ञेय हैं। श्रीकृष्ण ही ज्ञान हैं, श्रीकृष्ण ही [[ब्रह्म]] और श्रीकृष्ण ही जीव हैं। तुम जिन्हें अपने मामा का लड़का समझते हो, वह तुम्हारे मन्त्री रहे, तुम्हारे दूत रहे, तुम्हारे सखा रहे; जिन्होंने यज्ञ में तुम्हारे अतिथियों के चरण धोने का काम किया, जिन्होंने युद्ध में अर्जुन का सारथ्य किया, जिन्होंने अर्जुन के लिये अपने वक्ष:स्थल पर मेरे तीखे बाण सहे; वे श्रीकृष्ण ही [[परमात्मा]] हैं। उन्हीं का ध्यान, उन्हीं का स्मरण, उन्हीं का चिन्तन, उन्हीं का जप, उन्हीं का कीर्तन, उन्हीं का आश्रय, उन्हीं की शरण, उन्हीं का भजन, उन्हीं का सेवन, भैया! बस, सही परमार्थ है, यही स्वार्थ है, यही सब कुछ है। यही उपदेश है, यही आदेश है। यही सब आदेशों और उपदेशों का सार है। इससे बढ़कर और कुछ नहीं है। तुम और सब लोग इनकी ही उपासना करें, श्रीकृष्ण की ही उपासना करें। बस, हमें और कुछ नहीं कहना है। |
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+ | एक बार फिर यह बात कहनी है कि [[भीष्म पितामह]] के उपदेशों का स्वाध्याय करना हो तो पूरा शान्तिपर्व ही पढ़ना चाहिये। यहाँ तो केवल उनके कुछ वचन ही उद्धधृत किये गये हैं। वे भी एक ओर से नहीं, कहीं-कहीं के एक-एक वाक्य। अन्त में भीष्म ने कई दिनों तक उपदेश करने के बाद सबको आज्ञा दे दी कि अब तुम लोग [[हस्तिनापुर]] जाओ, जब सूर्य उत्तरायण हों तब मेेरे पास आ जाना। उस समय शरीर त्याग करके मैं अपनी अभीष्ट गति प्राप्त करुंगा। सब लोग चले गये। भीष्म आँख बन्द करके पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण का चिन्तन करने लगे। | ||
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| style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=भीष्म पितामह -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 100]] | | style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=भीष्म पितामह -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 100]] | ||
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17:02, 31 मार्च 2018 के समय का अवतरण
विषय सूची
श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
पितामह का उपदेशऐसा कर्म जप है, जप में जीभ से मन्त्र का उच्चारण होता है, हाथ में माला घूमती है, पहले मन से सांसारिक वस्तुओं का चिन्तन होने पर भी अन्त में अन्त:करण की ही स्मृति रहने लगती है। इससे अन्त:करण जाग्रत हो जाता है और परमात्मा के ध्यान में लगने लगता है। जप होना चाहिये, चाहे गायत्री का हो, चाहे प्रणव का हो, चाहे भगवान् के और किसी नाम का हो। अन्तर्मुख होना ही जप की सफलता का लक्षण है। जो जप करके भी अन्तर्मुख नहीं होता, उसके मन में आध्यात्मिक जिज्ञासा का अभाव है, अथवा श्रद्धा का अभाव है, ऐसा समझना चाहिये। युधिष्ठिर! तुमसे क्या बताऊँ, तुम तो सब जानते ही हो। लोक-कल्याण के लिये मुझसे प्रश्न करते हो तो करो और मैं उत्तर भी दूँ। असली बात यह है कि संसार में जितने प्रकार के धर्म हैं, वे सब श्रीकृष्ण से ही निकले हैं। श्रीकृष्ण ही सब धर्मों के उत्पत्ति स्थान हैं। जीवन्मुक्ति और स्वरुपस्थिति श्रीकृष्ण की कृपा की प्रतीक्षा करती है। श्रीकृष्ण ही निर्गुण ब्रह्म हैं; श्रीकृष्ण ही सगुण ब्रह्म हैं। श्रीकृष्ण ही साकार हैं, श्रीकृष्ण ही निराकार हैं। श्रीकृष्ण प्रकृति हैं और श्रीकृष्ण ही विकृति हैं। श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है। श्रीकृष्ण माता-पिता, भाई-बन्धु, सुह्द्-सखा, पति-पुत्र- सब कुछ हैं। वे पुरुष हैं, वे पुरुषोत्तम हैं। वे जीव हैं, वे ब्रह्म हैं। श्रीकृष्ण ही ज्ञाता हैं, श्रीकृष्ण ही ज्ञेय हैं। श्रीकृष्ण ही ज्ञान हैं, श्रीकृष्ण ही ब्रह्म और श्रीकृष्ण ही जीव हैं। तुम जिन्हें अपने मामा का लड़का समझते हो, वह तुम्हारे मन्त्री रहे, तुम्हारे दूत रहे, तुम्हारे सखा रहे; जिन्होंने यज्ञ में तुम्हारे अतिथियों के चरण धोने का काम किया, जिन्होंने युद्ध में अर्जुन का सारथ्य किया, जिन्होंने अर्जुन के लिये अपने वक्ष:स्थल पर मेरे तीखे बाण सहे; वे श्रीकृष्ण ही परमात्मा हैं। उन्हीं का ध्यान, उन्हीं का स्मरण, उन्हीं का चिन्तन, उन्हीं का जप, उन्हीं का कीर्तन, उन्हीं का आश्रय, उन्हीं की शरण, उन्हीं का भजन, उन्हीं का सेवन, भैया! बस, सही परमार्थ है, यही स्वार्थ है, यही सब कुछ है। यही उपदेश है, यही आदेश है। यही सब आदेशों और उपदेशों का सार है। इससे बढ़कर और कुछ नहीं है। तुम और सब लोग इनकी ही उपासना करें, श्रीकृष्ण की ही उपासना करें। बस, हमें और कुछ नहीं कहना है। एक बार फिर यह बात कहनी है कि भीष्म पितामह के उपदेशों का स्वाध्याय करना हो तो पूरा शान्तिपर्व ही पढ़ना चाहिये। यहाँ तो केवल उनके कुछ वचन ही उद्धधृत किये गये हैं। वे भी एक ओर से नहीं, कहीं-कहीं के एक-एक वाक्य। अन्त में भीष्म ने कई दिनों तक उपदेश करने के बाद सबको आज्ञा दे दी कि अब तुम लोग हस्तिनापुर जाओ, जब सूर्य उत्तरायण हों तब मेेरे पास आ जाना। उस समय शरीर त्याग करके मैं अपनी अभीष्ट गति प्राप्त करुंगा। सब लोग चले गये। भीष्म आँख बन्द करके पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण का चिन्तन करने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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