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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
पितामह का उपदेश'स्थिर आसन से बैठ जाओ और सोचो कि परमात्मा मेरे चारों ओर स्थित है, वह मेरे शरीर को स्थिर कर रहा है, मेरी इन्द्रियों को अन्तर्मुख कर रहा है, मेरे मन को अपने में लगा रहा है। काम-क्रोध को जला डालो। सर्दी-गर्मी की परवाह मत करो। संसार की किसी वस्तु की चिन्ता मत करो। प्रलय हो रहा है तो हो जाने दो? गला काटा जा रहा है तो कट जाने दो, तुम ध्यान करते रहो। उस समय अपने-आप में इस प्रकार स्थित हो जाओ कि कानों से शब्द, त्वचा से स्पर्श, आँखों से रुप, जीभ से रस और नाक से गन्ध का ज्ञान न हो। जिन विषयों के कारण मन इन्द्रियों में होकर बाहर जाता है, उन विषयों और इन्द्रियों को ही भूल जाओ। मन को केवल अनन्त चेतन में, अनन्त आनन्द में डुबा दो। डूब जाओ और इस तरह डूब जाओ कि फिर निकलने का संकल्प ही न रहे। जो लोग घड़ी-दो-घड़ी बाद ध्यान तोड़कर दूसरा काम करने का संकल्प रखते हैं, उनका सच्चा ध्यान लग ही नहीं सकता। ध्यान मन की साधना है। मन लगाने की चेष्टा करने पर भी बिजली के समान चमककर अन्धकार में विलीन हो जाया करता है। मन की यह स्थिति वांछनीय नहीं है। जिससे प्रेम होता है उसका रुप सामने आ जाता है। ऐसा नहीं होना चाहिये। समस्त सांसारिक नाम और रुपों को भूलकर तमोगुण, रजोगुण और सत्वगुण से ऊपर उठकर अपने स्वरुप में स्थित हो जाना चाहिये। ब्रह्मस्वरुप में स्थित जीवन्मुक्त महापुरुष किसी बात का आग्रह नहीं करता, किसी का विरोध नहीं करता, किसी से द्वेष नहीं करता, किसी वस्तु की कामना नहीं करता। वह सब प्राणियों से समान बर्ताव करता है। वह सबको समत्व की तराजू पर तौलता है। दूसरे के कर्मों की न प्रशंसा करता है और न निन्दा। वह आकाश की भाँति सबमें समभाव से स्थित रहता है। न वह किसी से डरता और न तो कोई उससे डरता है। न वह इच्छा करता है, न वाच्छा करता है। किसी भी प्राणी के प्रति 'यह पापी है' इस प्रकार की भावना उसके मन में नहीं आती। वाणी से वह किसी को पापी नहीं कहता। शरीर से वह किसी के प्रति घृणा का व्यवहार नहीं करता। जिससे भूत, भविष्य और वर्तमान में कभी किसी प्रकार, किसी को पीड़ा नहीं पहुँचती, वही ब्रह्मस्वरुप में स्थित है। जो पूजा करने वाले और मारने वाले दोनों के प्रति प्रिय अथवा अप्रिय बुद्धि नहीं रखता, वास्तव में वही महात्मा है। स्थूल शरीर के समस्त कर्मों का परित्याग करके केवल मन से ध्यान करना और निर्गुण स्वरुप में स्थित होकर जीवन्मुक्त हो जाना सबके लिये सुगम नहीं है। जिनकी शरीर और शरीर के कर्मों में आसक्ति है वे तो अपने अन्त:करण को भूले हुए हैं, केवल शरीर में ही स्थित हैं। वे भला ध्यान कैसे कर सकते हैं। उनके लिये पहले ऐसा उपाय होना चाहिये कि वे शरीर की क्रिया के साथ-साथ अपने मन को भी देख लिया करें अर्थात् ऐसी क्रिया करें जो शरीर से सम्बद्ध होने पर भी मन की ओर अधिक ले जाये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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