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− | एक बार [[ब्राह्मण]] वेशधारी इन्द्र ने पूछा कि 'दैत्यराज! आपने तीनों लोकों का राज्य किस प्रकार प्राप्त किया? [[प्रह्लाद]] ने कहा-'ब्राह्मण! मैं राजा होने के अभिमान से ब्राह्मणों का तिरस्कार नहीं करता। सम्मानपूर्वक उनका उपदेश ग्रहण करता हूँ और उसके अनुसार आचरण करता हूँ। वे मेरी सेवा और सच्चरित्रता से प्रसन्न होकर मुझे उपदेश किया करते हैं।' उपदेश के पश्चात् प्रह्लाद ने इन्द्र से कहा-' ब्राह्मण! मैं तुम्हारी सेवा से बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारी सेवा से बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारी जो इच्छा हो माँग लो।' ब्राह्मण ने कहा-'यदि आप प्रसन्न होकर मुझे वर देना चाहते हैं, तो अपनी सच्चरित्रता मुझे दे दीजिये।' ब्राह्मण की प्रार्थना प्रह्लाद ने स्वीकार की। उन्होंने अपनी सच्चरित्रता इन्द्र को दे दी। इन्द्र वहाँ से चले गये। | + | एक बार [[ब्राह्मण]] वेशधारी इन्द्र ने पूछा कि 'दैत्यराज! आपने तीनों लोकों का राज्य किस प्रकार प्राप्त किया? [[प्रह्लाद]] ने कहा- 'ब्राह्मण! मैं राजा होने के अभिमान से ब्राह्मणों का तिरस्कार नहीं करता। सम्मानपूर्वक उनका उपदेश ग्रहण करता हूँ और उसके अनुसार आचरण करता हूँ। वे मेरी सेवा और सच्चरित्रता से प्रसन्न होकर मुझे उपदेश किया करते हैं।' उपदेश के पश्चात् [[प्रह्लाद]] ने इन्द्र से कहा-' ब्राह्मण! मैं तुम्हारी सेवा से बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारी सेवा से बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारी जो इच्छा हो माँग लो।' ब्राह्मण ने कहा-'यदि आप प्रसन्न होकर मुझे वर देना चाहते हैं, तो अपनी सच्चरित्रता मुझे दे दीजिये।' ब्राह्मण की प्रार्थना प्रह्लाद ने स्वीकार की। उन्होंने अपनी सच्चरित्रता इन्द्र को दे दी। इन्द्र वहाँ से चले गये। |
− | इसी समय प्रह्लाद के शरीर से एक छाया निकली। प्रह्लाद के पूछने पर उस छाया ने उत्तर दिया कि मेरा नाम सच्चरित्रता (शील) है, आपने मुझे त्याग दिया है, मैं अब उसी ब्राह्मण के शरीर में रहूँगी। वह छाया चली गयी। उसके प्रह्लाद के शरीर से धर्म, सत्य, बल और लक्ष्मी सभी क्रमश: निकलकर आये, सबने अपना परिचय देकर प्रह्लाद से विदा माँगी और सब-के-सब चले गये; क्योंकि जहाँ सच्चरित्रता रहती है वहीं वे सब रहते हैं। सच्चरित्रता क्या है? मन से, वाणी से और आचरण से किसी का अनिष्ट न करना, दान करना और सब पर दया करना- यही सच्चरित्रता है। जिस काम से किसी भला न होता हो और जिससे समाज में लज्जा प्राप्त होती हो, ऐसा काम कभी नहीं करना चाहिये। दुश्चरित्र को कभी ऐश्वर्य नहीं मिल सकता। मिल भी जाये तो ठहर नहीं सकता। जिसे स्थिर सुख और सम्पत्ति प्राप्त करनी हो, उसे सच्चरित्र बनना चाहिये। | + | इसी समय [[प्रह्लाद]] के शरीर से एक छाया निकली। प्रह्लाद के पूछने पर उस छाया ने उत्तर दिया कि मेरा नाम सच्चरित्रता (शील) है, आपने मुझे त्याग दिया है, मैं अब उसी ब्राह्मण के शरीर में रहूँगी। वह छाया चली गयी। उसके प्रह्लाद के शरीर से धर्म, सत्य, बल और लक्ष्मी सभी क्रमश: निकलकर आये, सबने अपना परिचय देकर प्रह्लाद से विदा माँगी और सब-के-सब चले गये; क्योंकि जहाँ सच्चरित्रता रहती है वहीं वे सब रहते हैं। सच्चरित्रता क्या है? मन से, वाणी से और आचरण से किसी का अनिष्ट न करना, दान करना और सब पर दया करना- यही सच्चरित्रता है। जिस काम से किसी भला न होता हो और जिससे समाज में लज्जा प्राप्त होती हो, ऐसा काम कभी नहीं करना चाहिये। दुश्चरित्र को कभी ऐश्वर्य नहीं मिल सकता। मिल भी जाये तो ठहर नहीं सकता। जिसे स्थिर सुख और सम्पत्ति प्राप्त करनी हो, उसे सच्चरित्र बनना चाहिये। |
− | अतिथि-सत्कार और शरणागत रक्षा मनुष्य के परम धर्म हैं। मनुष्य के ही क्यों, पशु-पक्षियों के जीवन में भी यह बात देखी गयी है और उन्होंने इसके द्वारा वह गति प्राप्त की है; जो मनुष्यों को दुर्लभ है। इस विषय में परशुराम ने मुचुकुन्द से बड़ी सुन्दर कथा कही है। पुराने जमाने में एक बड़ा ही निष्ठुर बहेलिया था। उसकी क्रूरता से ऊबकर भाई-बन्धुओं ने भी उसे छोड़ दिया था। पशु-पक्षियों को मारना ही उसका काम था। | + | अतिथि-सत्कार और शरणागत रक्षा मनुष्य के परम धर्म हैं। मनुष्य के ही क्यों, पशु-पक्षियों के जीवन में भी यह बात देखी गयी है और उन्होंने इसके द्वारा वह गति प्राप्त की है; जो मनुष्यों को दुर्लभ है। इस विषय में [[परशुराम]] ने मुचुकुन्द से बड़ी सुन्दर कथा कही है। पुराने जमाने में एक बड़ा ही निष्ठुर बहेलिया था। उसकी क्रूरता से ऊबकर भाई-बन्धुओं ने भी उसे छोड़ दिया था। पशु-पक्षियों को मारना ही उसका काम था। |
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16:34, 31 मार्च 2018 के समय का अवतरण
विषय सूची
श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
पितामह का उपदेशएक बार ब्राह्मण वेशधारी इन्द्र ने पूछा कि 'दैत्यराज! आपने तीनों लोकों का राज्य किस प्रकार प्राप्त किया? प्रह्लाद ने कहा- 'ब्राह्मण! मैं राजा होने के अभिमान से ब्राह्मणों का तिरस्कार नहीं करता। सम्मानपूर्वक उनका उपदेश ग्रहण करता हूँ और उसके अनुसार आचरण करता हूँ। वे मेरी सेवा और सच्चरित्रता से प्रसन्न होकर मुझे उपदेश किया करते हैं।' उपदेश के पश्चात् प्रह्लाद ने इन्द्र से कहा-' ब्राह्मण! मैं तुम्हारी सेवा से बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारी सेवा से बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारी जो इच्छा हो माँग लो।' ब्राह्मण ने कहा-'यदि आप प्रसन्न होकर मुझे वर देना चाहते हैं, तो अपनी सच्चरित्रता मुझे दे दीजिये।' ब्राह्मण की प्रार्थना प्रह्लाद ने स्वीकार की। उन्होंने अपनी सच्चरित्रता इन्द्र को दे दी। इन्द्र वहाँ से चले गये। इसी समय प्रह्लाद के शरीर से एक छाया निकली। प्रह्लाद के पूछने पर उस छाया ने उत्तर दिया कि मेरा नाम सच्चरित्रता (शील) है, आपने मुझे त्याग दिया है, मैं अब उसी ब्राह्मण के शरीर में रहूँगी। वह छाया चली गयी। उसके प्रह्लाद के शरीर से धर्म, सत्य, बल और लक्ष्मी सभी क्रमश: निकलकर आये, सबने अपना परिचय देकर प्रह्लाद से विदा माँगी और सब-के-सब चले गये; क्योंकि जहाँ सच्चरित्रता रहती है वहीं वे सब रहते हैं। सच्चरित्रता क्या है? मन से, वाणी से और आचरण से किसी का अनिष्ट न करना, दान करना और सब पर दया करना- यही सच्चरित्रता है। जिस काम से किसी भला न होता हो और जिससे समाज में लज्जा प्राप्त होती हो, ऐसा काम कभी नहीं करना चाहिये। दुश्चरित्र को कभी ऐश्वर्य नहीं मिल सकता। मिल भी जाये तो ठहर नहीं सकता। जिसे स्थिर सुख और सम्पत्ति प्राप्त करनी हो, उसे सच्चरित्र बनना चाहिये। अतिथि-सत्कार और शरणागत रक्षा मनुष्य के परम धर्म हैं। मनुष्य के ही क्यों, पशु-पक्षियों के जीवन में भी यह बात देखी गयी है और उन्होंने इसके द्वारा वह गति प्राप्त की है; जो मनुष्यों को दुर्लभ है। इस विषय में परशुराम ने मुचुकुन्द से बड़ी सुन्दर कथा कही है। पुराने जमाने में एक बड़ा ही निष्ठुर बहेलिया था। उसकी क्रूरता से ऊबकर भाई-बन्धुओं ने भी उसे छोड़ दिया था। पशु-पक्षियों को मारना ही उसका काम था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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