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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण का माहात्म्य कथन, भीष्म की प्रतिज्ञा-रक्षा के लिये पुन: भगवान् का प्रतिज्ञा भंग, भीष्म का रण में पतनमहापुरुषों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वे ऊपर से चाहे जिस काम में लगे हों, हृदय में भगवान् श्रीकृष्ण का स्मरण किया करते हैं। चाहे भयंकर-से-भयंकर रुप धारण करके भगवान् उनके सामने आवें, वे भगवान् को पहचान जाते हैं। एक क्षण के लिये भी उनके मानस-पटल से मधुर मूर्ति भगवान् श्रीकृष्ण की छवि नहीं हटती। उनके अन्तस्तल में एक भी ऐसी वृत्ति नहीं होती जो भगवान् के माहात्म्य ज्ञान से शून्य हो। भगवान् की स्मृति ही महात्माओं का जीवन है, भगवानृ की स्मृति ही महात्माओं का प्राण है और वास्तव में वे हैं ही भगवत्स्मरण, स्मरण से पृथक् उनकी सत्ता ही नहीं है। भीष्म पितामह के जीवन में भगवत्स्मरण की प्रधानता है। वे अपनी इच्छा से कुछ नहीं करते, सब कुछ भगवान् की ही इच्छा से करते हैं। जब भगवान् हाथ में चक्र लेकर उन्हें मारने आये, तब भी उन्होंने भगवान् को वैसे ही पहचाना, जैसे सर्वदा पहचानते थे और आगे भी हम उनके जीवन में स्थान-स्थान पर देखेंगे कि वे भगवान् के स्मरण में ही तल्लीन हैं। चौथे दिन का युद्ध समाप्त हुआ। उस दिन दुर्योधन के बहुत-से भाई मारे गये। कौरवों की सेना में मुर्दनी-सी छा गयी। पाण्डवों की सेना में हर्षनाद होने लगा। दुर्योधन को बड़ी चिन्ता हुई। रात को भीष्म पितामह के पास गये। वे रोते हुए-से भीष्म पितामह से कहने लगे-'पितामह! आप, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, शल्य आदि महावीर मेरे पक्ष में हैं और सच्चे हृदय से मेरी ओर से युद्ध कर रहे हैं। मैं ऐसा समझता हूँ कि आप-जैसा योद्धा त्रिलोकी में और कोई नहीं है। पाण्डवों के सब वीर मिलकर भी अकेले आपको परास्त नहीं कर सकते। मुझे बड़ा संदेह हो रहा है कि पाण्डव किसके सहारे हम लोगों को जीतते जा रहे हैं। आप कृपा करके बतलाइये उनकी जीत का क्या कारण है? भीष्म पितामह बोले-'दुर्योधन! मैं तुमसे यह बात कई बार कह चुका हूँ, परंतु तुमने उस पर ध्यान नहीं दिया।' मैं अब भी तुम्हें यही सलाह देता हूँ कि तुम पाण्डवों से सन्धि कर लो। सन्धि करने से न केवल तुम्हारा ही, बल्कि सारे संसार का भला होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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